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साहित्य की दरी पर राजनीतिज्ञों के कदम
रामस्वरूप रावतसरे (शाहपुरा, जयपुर)
मो. 98285 32633
इन दिनों बड़ा ही अजीब चलन शुरू हुआ है कि, साहित्यक मंचों पर राजनैतिक कदम ताल हुए बिना ऐसे कार्यक्रमों को सफल ही नहीं माना जाता। यह भी देखने में आया है कि अपने आपको साहित्यकार कहलाने वाले भी जब तक राजनेताओं के कदमों की धूली के दर्शन नहीं करते तब तक उनका साहित्यकार होना तथा साहित्यक कार्यक्रम परवान भी नहीं चढ़ता।
ऐसे ही गत दिनों जयपुर में लिटरेचर फैस्टिवल हुआ, उसमें साहित्यकार थे लेकिन शायद उनसे ज्यादा राजनीतिक बिरादरी के लोग थे। उन्होंने साहित्य के मंच पर बैठकर किस प्रकार राजनैतिक चासनी में डुबोकर वैचारिक जलेबी को परोसा। उसने वहां उपस्थित जन समुदाय की वैचारिक सोच को बढ़ाया या गिराया यह बहुत बाद का विषय है परन्तु उनके आगमन से आयोजकों का मनोबल बढ़ा। खैर उनका आना या उन्हें बुलाना उनका अपना निजी मामला हो सकता है। जैसे किसी नेता का असामाजिक कृत्य का चर्चा में आने के बाद उन्हीं के बिरादरी के लोग कहते हैं। वैसे हमारे यहां यह आम बात है कि राजनैतिक मसले धार्मिक स्थानों पर तथा धार्मिक मसले राजनैतिक चौपालों पर हल होते रहे हंै। फिर साहित्य के मंचों पर राजनैतिक कदम ताल नहीं हो तो कार्यक्रम का रंग आंखों में सुरमई पैदा नहीं करता और ना ही साहित्यकारों को लगता है कि वे किसी आयोजन में है।
आजकल साहित्यकार जिस विषय वस्तु को लेकर साहित्य की रचना करते हैं उनके उद्बोधन, लेखन का उतना प्रभाव नहीं पड़ता, जितना कि राजनेता द्वारा कही गई बे सिर पैर की बात का होता है। जिसका साहित्य से दूर का भी वास्ता नहीं होता। इन मंचों पर ये नेता अपनी भड़ास निकालने के लिये कब किस पर पत्थर फेंकने शुरू कर दें कुछ कहा नहीं जा सकता लेकिन उपस्थित प्रबुद्ध समुदाय द्वारा उनके उद्बोधन को करतल ध्वनि के साथ सुना जाता है। उनके द्वारा कही गई किसी भी प्रकार की बात का भी तत्काल असर दिखाई पड़ता है। इलेक्ट्रोनिक मीडिया भी ब्रेकिंग न्यूज देगा और समाचार पत्र में भी मुख पृष्ठ पर समाचार स्थान लेगा। यह अलग बात है कि उसमें कार्यक्रम के नाम के अलावा साहित्य का कुछ भी नहीं होगा लेकिन हम इतने से ही खुश हैं।
शायद इसीलिये आयोजक साहित्यकारों के साथ इन नेताओं को अपने यहां बुलाते हैं। वैसे भी आजकल जितना साहित्यकार नहीं लिख रहे उससे ज्यादा दूसरे लोग लिख रहे हैं उनमें राजनेताओं की संख्या ज्यादा है। इनके अन्दर का लेखक तब उठक बैठक ज्यादा लगाता है जब ये सत्ता में नहीं होते है। इनकी लिखी पुस्तकें देखते ही देखते दूसरे तीसरे संस्करण को पार कर जाती हैं लेकिन साहित्यकार का प्रथम प्रयास ही घर की आलमारी में इस कदर जमा होता है कि लाख कोशिश करने के बाद भी वह बाहर निकलने को तैयार नहीं होता। वैसे जो हालात इस समय है उसके अनुसार तो यह लगता है कि साहित्य समाज का दर्पण नहीं है। राजनीति समाज का दर्पण हो गई है। लोग श्रेष्ठ को कम महत्व देते हैं लेकिन साधन और सुविधा होने पर निकृष्ट ज्यादा आकर्षक लगता है। यही कारण है कि लोगों की भीड़ जुटाने के लिये या यों कहें कि आयोजित स्थल भरा भरा लगे इसलिये इन राजनेताओं के चरण कमलों को प्रवेश दिलाया जाता है ताकि कार्यक्रम को सम्मानजनक स्थिति मिल सके। वैसे यह है भी कि किसी भी प्रकार का आयोजन हो तो नेता जी अवश्य आने चाहिये। छात्रसंघ का उद्घाटन है तो उसमें नेताजी होगें ही। मन्दिर का उद्घाटन है तो संत बिरादरी कम हो लेकिन असंतों की संख्या में कमी नहीं रहनी चाहिये।
पहले पुस्तक का विमोचन किसी वरिष्ठ साहित्यकार के कर कमलों से ही होता था। अब ऐसा नहीें है, अब तो पुस्तक किसी भी प्रकार की हो लेकिन उसका विमोचन तथाकथित नेता जी से ही होना चाहिये। अब यह अलग बात है कि जिस पुस्तक का विमोचन नेताजी द्वारा हो रहा है। उसके बारे में वे कुछ जानते भी है या नहीं। खैर कभी कभी (ख्याल नहीं) विचार आता है कि क्या हमारे समाज को दिशा देने वाले साहित्यकारों का वैचारिक ग्राफ इन नेताओं से कमजोर पड़ गया है या कि साहित्य की आधुनिक परिभाषा के केन्द्र बिन्दु में राजनीति ने ही डेरा जमा लिया है। पहले साहित्यकार सत्य के साथ था लेकिन जब से सरकारों ने साहित्यिक अकादमियों का गठन किया है। साहित्यकार सत्य के साथ नहीें होकर सरकारों के साथ उठक बैठक लगाता नजर आ रहा है। साहित्यकार इन अकादमियों में पद पाने के लिये या कि पुरस्कृत होने के लिये किस कदर इन नेताओं के चक्कर लगाते हैं और फिर जब वे इनमें सफल हो जाते हैं तो किस प्रकार के साहित्य की रचना कर पाते हैं इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है।
वैसे साहित्यकार और समाज सेवी की पहचान भी बहुत कठिन होती जा रही है। आजकल उचक्के भामाशाह का प्रमाण पत्र लेकर चौराहे पर खड़े हैं। चुटकलेबाजों ने काव्य की सारी दरियां अपने ही चारों और लपेट ली हैं। ऐसे में साहित्यिक मंचों पर प्रजातंत्र की प्रजा को जुटाने के लिये इन लोगों का होना जरूरी है। वास्तविकता और वैचारिक गहराई से किसी को क्या मतलब। उनका सत्ता के सक्षमों की नजरों में आना ही साहित्य की गहराई है।