लोभ सत्य निष्ठा को खा जाता है

 लोभ सत्य निष्ठा को खा जाता है

रामस्वरूप रावतसरे
मो.-9828532633

एक बार राजा भोज के दरबार में एक सवाल उठा कि, ‘ऐसा कौन सा कुआं है जिसमें गिरने के बाद आदमी बाहर नहीं निकल पाता?Ó इस प्रश्न का उत्तर जब कोई नहीं दे पाया। तब राजा भोज ने राज पंडित से कहा कि इस प्रश्न का उत्तर सात दिनों के अंदर लेकर आओ, वरना आपको अभी तक जो सुख सुविधा आदि दिया गया है, वह सब वापस ले लिए जायेंगे तथा इस नगरी को छोड़कर दूसरी जगह जाना होगा।
राज पण्डित छ: दिन तक घर में रह कर विभिन्न किताबों ग्रंथों में खोजते रहे लेकिन कहीं भी उत्तर नहीं मिला। निराश होकर वह जंगल की तरफ निकल गया। वहां उसकी भेंट एक गड़रिए से हुई। गड़रिए ने पूछा – ‘आप तो राजपंडित हैं, राजा के दुलारे हो फिर चेहरे पर इतनी उदासी क्यों?
राजपंडित के मन में आया कि इसे सारी बात बता दें, लेकिन अगले ही पल विचार आया कि यह गड़रिया मेरा क्या मार्गदर्शन करेगा? यह सोचकर राजपंडित ने कुछ नहीं कहा। इस पर गडरिए ने पुन: उदासी का कारण पूछते हुए कहा -‘पंडित जी मैं भी सत्संगी हॅू, हो सकता है आपके प्रश्न का जवाब मेरे पास हो, अत: नि:संकोच कहिए। कुछ देर सोच कर राज पंडित ने अपनी परेशानी बता दी और कहा कि अगर कल तक प्रश्न का जवाब नहीं मिला तो राजा उसे नगर से निकाल देगा।
गड़रिया बोला – मेरे पास पारस है उससे खूब सोना बनाओ। एक राजा भोज क्या लाखों राजा भोज आपके पीछे घूमेंगे। बस, पारस देने से पहले मेरी एक शर्त माननी होगी कि आपको मेरा चेला बनना पड़ेगा।
राज पंडित के मन में पहले तो अहंकार जागा कि दो कौड़ी के गड़रिए का चेला बनूं? लेकिन पारस पाने के स्वार्थ में चेला बनने के लिए तैयार हो गया।
गड़रिया बोला -‘पहले भेड़ का दूध पिओ फिर चेले बनो। राजपंडित ने झुंझलाते हुए कहा, यदि ब्राह्मण भेड़ का दूध पीयेगा तो उसकी बुद्धि मारी जायेगी। मैं भेड़ का दूध नहीं पीऊंगा।
गडरिया बोला -तो जाओ, मैं पारस नहीं दूंगा।
राज पंडित स्वार्थ के वश बोला – ठीक है,दूध पीने को तैयार हूं, आगे क्या करना है?
गड़रिया बोला-अब तो पहले मैं दूध को जूठा करूंगा फिर आपको पीना पड़ेगा।
राजपंडित ने कहा -तू तो हद करता है! ब्राह्मण को जूठा दूध पिलायेगा?
गड़रिया बोला -तो जाओ ।
राज पंडित कुछ सोचकर कि यहां कौन देखने बैठा है कि मैने गडरिये का जूठा दूध पिया। पारस मिलने के बाद सारे दाग धुल जायेगें। बोला – मैं तैयार हूं , जूठा दूध पीने को।
गड़रिया बोला-वह बात गयी। अब तो सामने जो मरे हुए इंसान की खोपड़ी का कंकाल पड़ा है, उसमें मैं भेड़ का दूध दोहूंगा, उसको झूठा करूंगा, कुत्ते को चटवाऊंगा फिर आपको पिलाऊंगा। तब मिलेगा पारस। नहीं तो अपना रास्ता लीजिए।
राजपंडित ने खूब विचार कर कहा- है तो बड़ा कठिन लेकिन पारस के लिये ये सब बातें मुझे स्वीकार है।
गडरिये ने कहा -फिर सोच लो।
राजपंडित -हां मैं पारस के लिये यह सब कुछ करने को तैयार हूं।
गड़रिया बोला- मिल गया जवाब। यही तो लोभ का, तृष्णा का कुआं है! जिसमें आदमी एक बार गिरता है और फिर कभी नहीं निकलता। जैसे कि आप पारस को पाने के लिए इस लोभ रूपी कुएं में गिरते चले गए। स्वार्थ के वशीभूत होकर आपने अपनी श्रेष्ठता, सत्य निष्ठा को भी दांव पर लगा दिया।
यह सत्य है कि जब हम तृष्णा के वश में होते हैं तो वह सब करने को तैयार हो जाते हंै जिसको नहीं करना चाहिये। लोभ उस लाभ से वंचित करता है जिसका आधार संतोष में है। आज हमारे आस पास जो कुछ भी अनैतिक हो रहा है जिसमें हम भी कहीं ना कहीं शारीरिक या मानसिक रूप से संलग्न है। उसके पीछे तृष्णा ही है। इससे बचने के हर सम्भव प्रयास करने चाहिये। लालच उतना ही करना चाहिये जिसमें संतोष को, विवेक को बाहर नहीं रहना पड़े। ये हमारे अन्दर ही रहें। श्रेष्ठता का भाव बना रहेगा। कभी किसी अंधे कुएं का सामना नहीं होगा।

अभिषेक लट्टा - प्रभारी संपादक मो 9351821776

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