आज का कार्यकर्ता सिपाही बन कर नहीं रहना चाहता

 आज का कार्यकर्ता सिपाही बन कर नहीं रहना चाहता

रामस्वरूप रावतसरे
मो.-09828532633

वैसे तो हम हमेशा ही विचार करते हंै, कबीर बाबा की तरह बिना विचारे कुछ नहीं करते क्योंकि यह हमारे खानदान की तजुर्बाये करतूत है। करतूत इसलिये कि जब हम किसी मसले पर विचार करते हैं तो, करते ही जाते हैं। मसला खत्म हो जाता है, पर हमारा विचार खत्म नही होता। यह हमारे सामथ्र्य की बात है। आज कल के युवाओं में इतना सामथ्र्य कहां है कि वे किसी मसले पर धैर्य रख कर चलें। उन्हें तो सब कुछ का हल तत्काल चाहिये और इसके लिये वे हमेशा उचकुचाते रहते हंै।
हम इसी मसले पर अपने दिमाग की नसों को ताने बैठे थे कि, पहले एक व्यक्ति संकल्प लेकर बहुत कुछ कर देता था। आज लाखों करोड़ों में हो कर भी कुछ नहीं कर पा रहे हैं। क्या उनमें सामथ्र्य की कमी आ गई है? हम इस राष्ट्रीय स्तर के मसले पर बौद्धिक दण्ड पेल रहे थे लेकिन समाधान तक जाना तो दूर मनमोहन जी की तरह उसके स्तर को भी महसूस कर पाना मुश्किल हो रहा था।
खैर यह मसला उन लोगों का हो सकता है जो घण्टों बैठ कर किताबों के पन्नों की पक्तियां गिनते रहते हैं, उनकी विचारणा किसी नतीजे पर पहुंचने की नहीं होती बस प्रबुद्धता में हो रही बहस का अगुवा बनने की होती है। उसके आगे कौन कहां है, इससे उन्हें कोई लेना देना नहीं होता लेकिन हमारी सामथ्र्य राणा सांगा की तरह है। क्या हुआ यदि हमने मैदाने जंग में शरीर पर अस्सी घाव नहीं खाये लेकिन इससे भी अधिक बार गृहस्थी के आगंन में लड़ते हुए पत्नि से ताने खाये हैं। हमारी जगह और कोई होता तो कब का घर बार छोड़ कर किसी मन्दिर की सीढिय़ों पर पड़ा होता।
हम अपने स्व विवेक से उत्पन्न होने वाली पौरूषीय ग्रन्थि को लेकर आज के युवाओं की तरह इतराने को ही थे कि, तनसुख तूफान की तरह आया जैसे कि आजकल के कार्यकत्र्ता आते हैं। उसके आते ही दीवार पर हुसैन की पैन्टिग उभरना शुरू हो जाती है। हमें बुरा तो बहुत लगता है कि तनसुख गुटखा खाता तो बाहर है और उसकी पीक हमारी दीवारों पर उंडेलता है। पर यह सोचकर कि वर्षो हो गये दीवारों पर रंग रोगन कराये। इसके ऐसा करने पर पौराणिकता में आधुनिका का आभास होता है। अब तक हमारे यहां यही कुछ हुआ है हमने सभी क्षैत्रों में अधकचरे ज्ञान के बलबूते पर आधुनिकता और पौराणिकता की बेस्वाद खिचड़ी बनाई है जिसे कोई खाना तो दूर, देखना तक नहीं चाहता।
खैर हमने विचारों की गति को हल्का विराम दिया और तनसुख की ओर गम्भीर भाव भंगिमा से मुखातिब हुए। यह सब करने में हमारे माथे की नसें बाहर आने को हो रही थी। तनसुख बोला, अंकल आप इतने खोये खोये से क्यों हो? हमने कहा तनसुख हमें सुबह से ही एक बात परेशान किये हुए है।
तनसुख राजठाकरे के कार्यकत्र्ताओं की तरह बांह चढ़ाते हुए बोला, ‘वह कौन है जो आपको परेशान किये हुए हैÓ। अभी उसे तोड़े देते हंै। हमने कहा परेशानी किसी आदमी से नहीं, विचारों की है और वह यह है कि आज तुम युवा लोग छोटी छोटी बात पर ही आपा खो बैठते हो, हम जब तुम्हारी उम्र के थे तो कितनी ही बड़ी बात हो जाय पर हम पर कोई असर ही नहीं होता था। तुम्हारी उम्र में हम पूरी की पूरी बोतल गटक जाते थे पर होश नहीं खोते थे। एक तुम हो कि एक गुटखा क्या मुंह में डालते हो हॉर्सपावर की श्रेणी में आ जाते हो। तनसुख बोला, ‘अंकल तुम्हारे जमाने की और अब की फेक्ट्रीयों में जो उत्पादन हो रहा है उसमें बहुत अन्तर है। तुम लम्बा इन्तजार कर सकते थे, कर सकते हो। पर हम नही, हमें तुरन्त चाहिये। तुम इस इन्तजार में रहते हो कि कोई आवाज देकर बुलाये तो जावो।
अंकल वह जमाना गया जब वर्षो एक ही दरी पर बैठ कर समय गुजार दिया जाता था। आज का युवा चाहता है कि यदि उसने किसी पार्टी का चोला पहना है तो उसे तुरन्त लाभ भी मिलना चाहिये। जैसे गुटखा खाते ही माथे पर पसीना आ जाता है। लडख़ड़ाती जुबान सम्भलने लगती है। रूकती कलम चलने लगती है और तो और इससे मर्दानगी का भी एहसास होने लगता है।
अंकल तुम को पता है आज का कोई भी कार्यकत्र्ता सिपाही बन कर नहीं रहना चाहता। उसे थानेदार का तो कम से कम एहसास होते रहना चाहिये। फिर देखो उसके काम करने का ढंग। अंकल यह ग्लोब्लाईजेशन का जमाना है किसे इतनी फुर्सत है कि घण्टों बैठकर किसी विचार पर मंथन किया जावे। फिर आज कल के युवाओं में इतनी स्टेमना भी तो होनी चाहिये।
बताया जाता है, पहले चलते समय जमीन हिलती थी। आजकल चलने वाला ही हिलता है। लगता है कब वह ‘राम नाम सत्य हैÓ के उच्चारण को आमन्त्रण कर ले। तनसुख चला गया पर एक विचार छोड़ गया कि सब कुछ तत्काल चाहिये। जिस युवा को कर्मठता के आधार पर पसीने आने चाहिये, वह बिना कर्मठता के ही पसीना लाने की बात कर रहा है। यही नहीं वह बिना कुछ किये ही सब कुछ प्राप्त करने की लालसा रखता है।
ऐसी उपज का बीज भविष्य में कितना कारगर सिद्ध होगा सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। यही कारण है हमारे पास सब कुछ होकर भी कुछ नहीं है। हमारा देश युवाओं का देश कहलाता है लेकिन युवाओं में कुछ करने की क्षमता कम, पाने की लालसा ज्यादा है। इस लालसा का लाभ धूर्त लोग उठा रहे हैं। जिस देश का युवा वैचारिक दृष्टि से कर्मठता, श्रेष्ठता तथा आचरण से संस्कारों की राह पर नहीं हो। वहां की जमीन कितनी भी उच्च कोटि की क्यों ना हो, उसे बंजड़ होने से नहीं बचाया जा सकता।

अभिषेक लट्टा - प्रभारी संपादक मो 9351821776

Related post