सफलता की सीढ़ी… अत्यधिक सोच का सिद्धांत

 सफलता  की  सीढ़ी… अत्यधिक सोच का सिद्धांत

व्यक्ति कठिन निर्णय लेने से पूर्व समस्या के बहुआयामों, उसके परिणाम तथा अपेक्षित संभावनाओं से विचलित हो जाता है। विशेष तौर से तब जब वह निर्णय उसके जीवन के लिए आवश्यक हो, जिस निर्णय से उसका भविष्य निर्धारित होता हो या समस्या का दीर्घकालीन प्रभाव व्यक्ति के जीवन पर पडऩे की आशंका हो, ऐसे में व्यक्ति को निर्णय लेने में समय लगना संभव है। यह वही समय है जब व्यक्ति के मन और मस्तिष्क में तर्क-वितर्क का सैलाब उमडऩे लगता है और बैचेनी तथा विचलन उसे काम में मन नहीं लगने देते, रातों में नींद नहीं आती। इसमें कोई दो राय नहीं है कि, महत्वपूर्ण निर्णय व्यक्ति के जीवन में विचारों की लम्बी फेहरिस्त लेकर आते हैं। संभवत: यह प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में होने वाली आम घटना है, ऐसे निर्णय के बाद पुन: नियमबद्ध रूप से व्यक्ति का जीवन पटरी पर लौट आता है परन्तु ऐसी सोच ‘अत्यधिक सोचÓ से ग्रसित व्यक्ति के जीवन में निरन्तर रूप से चलती रहती है और व्यक्ति इस सोच में दिन भर घिरा रहता है, ऐसी सोच सिलसिलेवार तौर पर व्यक्ति के जीवन का हिस्सा बन जाती है और यदि इस पर समय रहते काबू न किया गया तो ऐसी निरंतर सोच को रोक पाना कठिन हो जाता है। ऐसा व्यक्ति जीवन में घटी घटनाओं, लोगों की प्रतिक्रिया, व्यवहार, निर्णय तथा कड़वाहट लिए रिश्तों के प्रति बड़ा संवेदनशील होता है फलस्वरूप वह इन सोच, घटनाओं, परिस्थितियों परिणाम के बारे में बहुत अधिक और लंबे समय तक सोचने की प्रवृति बना लेता है जिसके रहते वह सदैव असमंजस में रहता है। ऐसी घटनाएं, विचार व सोच को मस्तिष्क से बाहर निकालने में वह असमर्थ हो जाता है और वह निरंतर इन विचारों को कातता – बुनता रहता है। वह अपने भविष्य को लेकर सदैव चिंतित रहता है, भविष्य में होने वाली कोई अनहोनी या बुरी घटना का विचार उसे सदैव डराता है। वह अपनी बीती घटनाओं के लिए, लिए गए निर्णय के लिए कोसता है या न लिए गए निर्णय से कुंठित रहता है।
अत्यधिक सोचना कोई स्थायी स्वभाव नहीं है, इसे रोका जा सकता है यदि आप अपने मस्तिष्क को इस प्रकार अभ्यस्त करें कि, वह जीवन की घटनाओं को दूसरे परिप्रेक्ष्य में देखे। यदि व्यक्ति को ऐसा लगे कि, वह सोच में घिरने वाला है तो उसे अपना ध्यान तुरंत वहां से हटा लेना चाहिए और आस-पास की चीजों पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। यदि फिर भी आप विचारों से घिर जाएं तो अपने आप से सम्पर्क साधें, अपनी सोच को स्वयं के संवाद से जोड़ें। अपने आप से सकारात्मक प्रश्न पूछें। ज्यादातर देखा गया है कि, सोच और क्रियान्वयन दो भिन्न कार्य हैं। व्यक्ति सोच में फंसा रहता है और क्रियान्वयन नहीं हो पाता जो उसे विचलित करता है। समाधान सरल है, आप अपने कार्य को पेपर पेन लेकर उसे लिख लें जिससे क्रियान्वयन न होने के कारण स्पष्ट हो जाएंगे। यदि सोचना फिर भी कम ना हो तो एक डायरी में जब-जब सोच आए उसे लिख लें जिसके रहते आपको मानसिक शांति मिलेगी।
व्यक्ति को अपने डर को आइना बनाना चाहिए ना कि बेडिय़ां क्योंकि आइना व्यक्ति को उसके भीतर के व्यक्तित्व से रूबरू कराता है जिससे वार्तालाप कर आप किसी निर्णय तक पहुंच सकते हैं। बहरहाल, लोग डर की परछाई में जीवन जीकर भविष्य के अवसरों की ओर अविश्वासी रहते हैं। व्यक्ति से यह अपेक्षित है कि, वह उसके भीतर छिपे डर से रूबरू होकर काबू पाए।
आप डर और सहज बोध के भीतर के अंतर को समझें। डर को सहज बोध (Intution) का रूप दें जो आने वाले संकट को भांपने में मदद करे। यदि आप निरंतर अपनी नकारात्मक सोच के साथ घिरे रहेंगे तो यह सोच सिलेसिलेवार तौर पर आपके निर्णय, सोच और विचारों को दूषित करते रहेंगे और देखते ही देखते आपके जीवन का हिस्सा बन जाएंगे तब उस स्थिति में बहुत कठिन होगा ऐसी अत्यधिक सोच और विचारों से निजात पाना। अधिक सोचना व्यक्ति के लिए विनाशकारी और मानसिक रूप से थकाने वाली क्रिया है। व्यक्ति घुटन महसूस करने लगता है जैसे कहीं फंस गया हो। यदि ऐसी सोच और विचारों पर काबू न पाया जाए तो रोजमर्रा के कार्यों पर भी इनका प्रभाव पडऩे लगता है। यह तीव्रता से आपके स्वास्थय और सेहत पर दुष्परिणाम डालने लगती है।
सफलता की सीढ़ी चाहती है कि, आप सोच को कार्य का रूप दें ताकि सोच से उत्पन्न यह अवस्था आप पर हावी ना हो क्योंकि व्यक्ति के अधिकांश दुख जिनसे वह जूझ रहा है वह केवल उसकी सोच और विचार हैं। सकारात्मक सोच से किया प्रयास आपकी सफलता के मार्ग को प्रशस्त करता है।

अभिषेक लट्टा - प्रभारी संपादक मो 9351821776

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