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सफलता की सीढ़ी… तुलना का सिद्धांत
- अभिषेक सर
- 13-09-2020
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मानव रचना इस प्रकार से हुई है जो उसे शक्ति प्रदान करती है कि वह अपने को समझे, ऐसी क्षमता व्यक्ति को प्रतिबिंबित करती है और मनुष्य को दूसरे जीवों से प्रथक कर यह दर्शाती है कि, हम मानव प्रजाति हैं एवं यही जीवन उद्देश्य का द्योतक भी है। इसे यदि हम ऐसे समझें कि, तुलना व्यक्ति का स्वयं का मूल्यांकन है जो तभी संभव है यदि इसका किसी दूसरे व्यक्ति से संदर्भित किया जाए। व्यक्ति अपने इर्द-गिर्द अपने ही जैसे लोगों से घिरा है फलस्वरूप व्यक्ति एक दूसरे से तुलनात्मक व्यवहार करते हैं।
मानव सदैव असुरक्षित और हीनता से ग्रसित रहता है, यह मानव व्यक्तित्व की पहचान है। तुलना के सिद्धांत के अनुसार ऐसा व्यक्ति सदैव सराहना, प्रशंसा से लाभान्वित और प्रसन्न होना चाहता है। यही अंधी दौड़ उसे तुलना के जाल में फंसा देती है और यदि यह अति का रूप ले ले तो ईष्र्या के भंवर में डाल देती है। उदाहरण के तौर पर एक व्यक्ति अपनी शक्ल किसी अभिनेता से मिलती पाता है या कोई व्यक्ति की निपुणता की तुलनात्मक विश्लेषण करता है तब व्यक्ति के भीतर खुशी और संतुष्टि का संचार होता है। मानव स्वभाव सदैव उत्कृष्टता की ओर आकर्षित होता है और स्वयं की तुलना उत्कृष्ट होने पर स्वयं को सिद्ध करता है। इसके विपरीत समान योग्यतावान व्यक्ति के बीच तुलना होने पर दोनों ही स्वयं को बेहतर सिद्ध करने में लग जाते हैं।
सोशियल साइकोलोजिस्ट लीयोन फींसटिंगर के अनुसार व्यक्ति अपने विचार और योग्यता का मूल्यांकन दूसरे लोगों से दो कारणों से करता है।
- अपने भीतर की अनिश्चितता को कम करने के लिए जिस क्षैत्र में वह कार्यरत है।
- स्वयं को परिभाषित करने के लिए।
यहां यह समझना आवश्यक है कि, व्यक्ति स्वतंत्र रूप से स्वयं को परिभाषित नहीं कर सकता, उसे आवश्यकता होती है संदर्भित बिन्दु (REFERENCE POINT) की जो स्पष्ट है कोई वस्तु नहीं हो सकती क्योंकि तुलना का सिद्धांत स्पष्ट है, समरूप के साथ समान व्यवहार किया जाना चाहिए। फलस्वरूप व्यक्ति को तुलना करने के लिए दूसरे व्यक्ति या समूह की आवश्यकता पड़ती है जिसके संदर्भ में वह स्वयं को परिभाषित करता है। समस्या और गंभीर तब हो जाती है जब बात व्यक्ति की पहचान के लिए आवश्यक हो जाती है।
दो समान व्यक्ति की तुलनात्मक सोच समान होती है बनिस्पत दो असमान गुण और प्रतिभा वाले व्यक्तियों से जैसे कक्षा के विद्यार्थियों की तुलना सदैव होती है वैसे ही सहकर्मियों में तुलना स्पष्ट देखी जा सकती है परन्तु मालिक और नौकर के बीच तुलना होते हुए नहीं देखा गया है। तुलना के सिद्धांत अनुसार व्यक्ति जब दूसरे से तुलना करता है तब वह दो भाव अनुभव करता है कि वह अपनी प्रतिभा से प्रसन्नता और ऐसी भावना से उत्पन्न सकून को महसूस करता है। यदि वह सकारात्मक या उसके पक्ष में तुलना करने में विफल हो जाता है तब वह उन लोगों से शत्रुता पालने लगता है या अपमानित महसूस करने लगता है।
सफलता की सीढ़ी चाहती है कि, प्रत्येक व्यक्ति स्वयं को तुलना के जाल में न आने दे। बड़े-छोटे, सुन्दर-बदसूरत, समझदार-नासमझ जैसी तुलना से स्वयं को दूर रखें क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति दूसरे से प्रथक है। उसके गुण, प्रतिभा, रूप रंग अलग हैं। एक व्यक्ति की तुलना दूसरे से करना असंभव है। अत: प्रत्येक व्यक्ति से यह आपेक्षित है कि, वह अपने गुणों को पहचानें और उन्हें और निखारे। वह एक अच्छा व्यक्ति बने जिसका व्यक्तित्व अतुल्य हो।