सफलता की सीढ़ी…
परिवर्तन का सिद्धांत

 सफलता की सीढ़ी…परिवर्तन का सिद्धांत

प्रत्येक व्यक्ति की जीवनयात्रा भिन्न होती है, उनकी खुशियां, महत्वाकांक्षाएं, जीवन के उतार चढ़ाव व्यक्तिश: भिन्न होते हैं। व्यक्ति का एक दूसरे से तुलनात्मक विश्लेषण करने का कृत्य मानव सभ्यता की सबसे बड़ी भूल होगी परन्तु व्यक्ति सदियों से यह त्रुटि करता चला आ रहा है। व्यक्ति परिवर्तन के सिद्धांत के दो बिन्दुओं में पिसता चला जा रहा है और इन्हीं दो कारणों के रहते वह कुंठित भी है। एक ओर उसका शारीरिक रूप है और दूसरी ओर मानसिक रूप। शारीरिक रूप जो उसके माता-पिता, दादा-दादी की अनुवांशिता लिए हुए है जिसे उसके माता-पिता ने बनाया है पर वह सदैव इस बात से कुंठित रहता है कि, वह मोटा क्यों है? उसका कद कम क्यों है? वह पतला क्यों है आदि परन्तु उसकी शारीरिक संरचना उसके बस की बात नहीं, यह उसे अनुवांशिका से प्राप्त हुई है। उसके बस में तो बस उसकी शारीरिक संरचना में हल्का-फुल्का बदलाव लाने तक सीमित है। इस बात को लेकर कभी वह स्वयं को तो कभी माता-पिता को कोसता रहता है।
वहीं दूसरी ओर ‘मानसिक रूपÓ जो व्यक्ति जन्म के साथ विकसित करना प्रारंभ कर देता है और उसकी यह यात्रा अंतिम सांस तक जारी रहती है। व्यक्ति मानसिक विकास प्रारंभ में घर से प्राप्त करता है। देवघरों से प्राप्त शिक्षा, गुरूकुल और विद्यालयों से, पुस्तकों के ज्ञान से और पत्र-पत्रिकाओं तथा समाचार पत्रों से प्राप्त करता है। धीरे-धीरे जीवन में अनुभव भी उसे मानसिक तौर पर सुदृढ़ शिक्षा के स्त्रोत साबित होते हैं और धीरे-धीरे वह मानसिक तौर पर सशक्त होता चला जाता है। व्यक्ति यदि इस मानसिक रूप को उत्साहित होकर ना स्वीकारे और अपने विचारों को परिपक्व ना करे तब वह अपने भीतर परिवर्तन शून्य महसूस करता है और स्वयं में परिवर्तन लाने के लिए मन से लाचार महसूस करता है।
मानव चरित्र का यह विरोधाभास अनंत काल से चला आ रहा है और अनुसंधान का विषय रहा है। कई पुस्तकें लिखी गई हैं, कई शोध भी इस विषय में हुए हैं परन्तु प्रश्न जस का तस है। यह विरोधाभासी तथ्य अपने आप में विचारणीय बिन्दु भी है। व्यक्ति द्वारा इच्छानुसार शारीरिक संरचना की परिकल्पना करना संभव नहीं है क्योंकि उसकी अनुवांशिकी उसे अनुमति नहीं देती चाहे वह कितना भी प्रयत्न कर ले। जिसके विपरीत व्यक्ति मानसिक गुण को निरंतर निखार सकने की क्षमता रखता है परन्तु वह इस स्वरूप को समझने में चोट खा जाता है। परिणामस्वरूप इतने शक्तिशाली गुण को यूं ही व्यर्थ कर देता है।
यदि व्यक्ति अपनी मानसिक शक्ति का बोध सही समय और रूचिनुसार करे तब यही मानसिकता व्यक्ति को सफलता की उन ऊंचाइयों तक पहुंचाएगी जहां उसकी उपलब्धियां व्यक्ति विशेष को भी अचंभित कर देगी। मानसिक रूप की विशेषता यह है कि, व्यक्ति अपनी इच्छाशक्ति से इन गुणों को इच्छानुसार बदल सकता है। वह इन गुणों के मूलभूत ढांचे को भी बदलने की काबिलियत रखता है। बस, आवश्यकता है तो पर्याप्त इच्छाशक्ति की।
सफलता की सीढ़ी चाहती है कि, आप सफलता के सूत्र को समझें। सफलता केवल मात्र पढ़ कर परीक्षा उत्तीर्ण करने का नाम नहीं है अपितु सफलता से जुड़ा आवश्यक तत्व परिश्रम भी है जो व्यक्ति को प्रतिदिन सफलता के लिए तराशता है। परिश्रम के दो सिद्धांत हैं, जो भी आप पढ़ते हैं, सुनते-देखते अनुभव करते हैं उन्हें अपने विचारों, भावों व तकनीक से पहचानें। उसे अपने कार्य, अध्ययन व मौजूदा स्थिति से जोड़ें, आत्मसात करें और उनसे उत्पन्न विचारों को अमल में लाएं, जिन विचारों से आप में अपने लक्ष्य को प्राप्त करने की उत्सुकता आएगी और उन उत्सुकता से पनपे आपके कार्य आपको सफलता की ओर दिशा-निर्देश देंगे फलस्वरूप आप अपने मन और भावनाओं को एकाग्र कर सफलता की ओर बढ़ चलेंगे।

अभिषेक लट्टा - प्रभारी संपादक मो 9351821776

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