सफलता की सीढ़ी…
स्वयं से ईमानदारी रखिये

 सफलता की सीढ़ी…स्वयं से ईमानदारी रखिये

‘जैसा दुनिया देखना चाहती है मैं वैसा बनता चला जा रहा हूं, मगर मैं वह बनना चाहता हूं जो मैं भीतर से हूं।Ó


आज के आम इन्सान की यही विडम्बना है। वह इस सांसारिकता में इतना खो गया है कि, वह स्वयं को खोना चाहता है और वह बनना चाहता है जो दुनिया उससे अपेक्षा करती है। आज हम झूठ की नगरी के वाशिंदे होकर रह गए हैं। आज हम उस दौर में जी रहे हैं जहां अपनी बातों, सोचें और विचारों पर खुद ही कायम रहने में असमर्थ हैं। केवल व्यवहारिक दृष्टिकोण और समय की आवश्यकतानुसार हम दूसरों से व्यवहार और वार्तालाप करते हैं जिससे हम भीतर से कतई सहमत नहीं होते। अति तो तब हो जाती है जब हम स्वयं को भी झूठे दिलासे देने से नहीं चूकते। ऐसे वादे जिन्हें हम स्वयं भी पूरे करने का माद्दा नहीं रखते जैसे वर्ष के प्रारंभ में वजन कम करना या नियमित ध्यान या योग करना। यहां हमारी मंशा इन कामों को पूरा करने की नहीं होती वरन् जब तक मन किया कर लिया।
हद तो तब हो जाती है जब हम बेहद संवेदनशील विषयों पर भी स्वयं से आंखें मूंद झूठ बोलने से नहीं कतराते जैसे विद्यार्थी अपनी पढ़ाई से मन चुराकर मोबाईल और मित्रों के साथ समय व्यर्थ करता है। जब व्यक्ति परिवार के कार्य, बच्चों को समय तथा घर की समस्याओं से यह कहकर पल्ला झाड़ लेता है कि, ऑफिस में काम है परन्तु वही व्यक्ति सोशियल गेदरिंग मेेंं अपना नेटवर्क बढ़ाने का बहाना कर घंटों अपने मित्रों के साथ गप्पे लड़ाने का कोई मौका नहीं छोड़ता। प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी में जहां विद्यार्थी को पूरी एकाग्रता से तैयारी कर अपने लक्ष्य को प्राप्त करने की ललक रात दिन सोने नहीं देती। ऐसे में पढ़ाई का नाम लेकर घंटों मित्रों के साथ समय बिताना क्या स्वयं के साथ झूठ बोलना नहीं है? यह आपके सोचने का विषय है।
व्यक्ति द्वारा दूसरों से झूठ बोलना गलत बात है परन्तु स्वयं से झूठ बोलना अपने आप से ईमानदारी नहीं है। यह एक प्रकार का मीठा जहर है जो धीरे-धीरे व्यक्ति को खोखला कर देता है। वह जीवन की जंग में निढाल, निष्क्रिय होकर जीवन की रणभूमि में अपनी हार स्वीकार कर अपना जीवन जीने लगता है।
व्यक्ति के द्वारा ऐसे विचार और बातें कोई मायने नहीं रखती जिस पर वह अडिग नहीं रह सकता। यहां आप इस बात पर गौर करें कि, जब ऐसा विचार और बातें आप केवल बोलने के लिए करते हैं तब उन्हें पूरा करने में आपकी कोई रूचि नहीं होती और ना ही आप प्रयत्न करते हैं अपनी बातों पर कायम रहने के लिए। जब ऐसे वादे आप तोड़ते हैं तब आप दुखी होते हैं, चिढ़ते हैं, स्वयं पर तथा परिवार जन पर गुस्सा निकालते हैं, किस्मत को कोसते हैं …..। क्या आपका ऐसा व्यवहार तर्कसंगत है? नहीं है ….. क्योंकि, हम भीतर से जानते हैं कि हर तोड़ा हुआ वादा या झूठ आप पर दूसरों का विश्वास कमजोर करता है, आपकी साख को धूमिल कर देता है और व्यक्ति अविश्वास तथा कशमकश के भंवर में फंसता चला जाता है जिससे आज सम्पूर्ण मानव जाति जूझ रही है।
सफलता की सीढ़ी चाहती है कि, इस युग में सत्य का दामन थामें जो कि कठिन है परन्तु नामुमकिन नहीं, तभी आप अपनी बातों और विचारों पर अटल रह पाएंगे क्योंकि जो कार्य आपको सुकून नहीं देता, उसे करने की चेष्टा या वादा करने से बचें क्योंकि आपका ह्रदय और मन उसकी अनुमति नहीं देता। ऐसे में प्राय: आप ऐसा कार्य करेंगे नहीं और यदि कर भी लिया तब भी आप ऐसे कार्य के साथ न्याय नहीं कर पाएंगे।

अभिषेक लट्टा - प्रभारी संपादक मो 9351821776

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