डाक विभाग कॉलोनियों में जाकर खोल रहा है सुकन्या समृद्धि खाते
खाता है, तब तक खाता है
रामस्वरूप रावतसरे (शाहपुरा, जयपुर)
मो. 98285 32633
त्रिवेणी धाम में कथा का वाचन हो रहा था। कथावाचक महाराज ने प्रसंगवश एक कहानी सुनाते हुए कहा कि एक व्यक्ति महात्मा जी के पास आया और बोला कि, ‘महाराज मेरा लड़का खाता बहुत हैÓ। महाराज ने कहा कि ‘खाता बहुत है!Ó क्या मतलब है तुम्हारा ? उस व्यक्ति ने कहा ‘महाराज मेरा लड़का दिन भर खाता ही रहता हैÓ। महाराज बोले ‘तुम्हारा लड़का खाता बहुत हैÓ। वह बोला ‘हां महाराज, इसका कोई इलाज बताओ ताकि वह कम खायेÓ। महात्मा फिर बोले, ‘तुम्हारा लड़का खाता बहुत हैÓ। वह व्यक्ति फिर बोला ‘हां महाराजÓ।
महात्मा जी बोले ‘भाई जब तक उसका खाता है तब तक वह खायेगा ही। जब उसका खाने का खाता खत्म हो जावेगा। वह अपने आप खाना बन्द कर देगाÓ। वह व्यक्ति बोला ‘महाराज में समझा नहींÓ। महात्मा ने समझाया कि, ‘तुम्हारा लड़का जन्म से ही खाने का खाता लेकर आया है। जितना उसका खाता है, वह खायेगा ही। उसके बाद उसकी अत्यधिक खाने की आदत कोई ना कोई बीमारी को आमन्त्रण देगी, वह डॉक्टरों के पास जावेगा डॉक्टर उसे कम खाने या नहीं खाने की सलाह देगें। यूं समझो कि उसका खाने का खाता अब खत्म होने की ओर है। वह अपने आप खाना बन्द या कम कर देगा,समझे।
ऐसे ही हम सब खाने के खाते लेकर आते हंै। जिसके खाते में खाने की कम मात्रा होती है वह उसे बढ़ाने के लिये कई प्रकार के प्रयास करता है और जिसके खाते में पहले से ही बहुत कुछ है वह उसे जल्दी से जल्दी खा पी कर निपटाने में लगा रहता है लेकिन होता वही है जो उसके खाते में पहले से होता है। हां जो संयम से खाते हंै, वे लम्बे समय तक अपने खाते को चला ले जाते हैं ओर जो खाने में संयम नहीं रखते, उनका खाता जल्दी बन्द हो जाता है। खाने पीने में जिन लोगों ने संयम बरता वे आज स्वस्थ हंै। उनके किसी प्रकार की बीमारी नहीं है। जिन्होंने ऐसा नहीं किया वे, कई प्रकार की बीमारियों से जूझ रहे हंै। भूख में आकर्षण प्रबल होता है। पर उसका अंत बहुत ही दुखदायी होता है। आदिशंकराचार्य के अनुसार ‘सुखेन क्रियते रामायोग:। पश्चाधन्त शरीरे रोग:।।Ó अर्थात ‘मनुष्य पहले तो सुख से भोगों को भोगने का प्रयत्न करता है परन्तु बाद में वही भोग, रोग बनकर उसी मनुष्य का पीछा करते है।Ó हमें खाना तो खाना चाहिये लेकिन कितने खाने से हमारा शरीर चल सकता है उतना ही खाना खाने का प्रयास होना चाहिये।
यह शरीर प्रकृति की देन बताया जाता है, जिसे हम यदि प्रकृति के नियमों के अनुसार ही रखेंगें तो इसकी उर्जा लम्बे समय तक बनी रहेगी। यह उर्जा इस बात पर ही निर्भर करती है कि हम कितने संयम से रहते हैं। जहां हमने वासना को प्रबल होने दिया वहां भागदौड़ शुरू हो जाती है। हम उसे शान्त करने के उपाय खोजने लगते हंै। जितना उसे शान्त करने की कोशिश होती है उसकी ज्वाला उतनी ही प्रबल होती जाती है। किसी भी प्रकार की वासना को विवेक से ही शान्त किया जा सकता है। जिस व्यक्ति का विवेक जागृत अवस्था में होगा, वहां चेतनता होगी। यहां सही गलत के साथ साथ सत्य का और सौन्दर्य का सहज प्रवाह होगा। विवकेशील व्यक्ति अंहकार से कोसों दूर होता है। वासना को आधार मानकर जीने वाला व्यक्ति अहंकारी होता है। अहंकार पतन की ओर ले जाता है। विवेक मनुष्य के शरीर में सरलता, सौम्यता तथा आशावादिता लाता है जो आत्मा को प्रकाशमान करने में सहायक होती है। आत्मा का प्रकाशमान होना ही श्रेष्ठता के मार्ग पर चलना है। इस लिये किसी भी प्रकार की भूख को अपने पर हावी नहीं होने देने में ही हमारी भलाई है।