कहीं पे तीर कहीं पे निशाना

 कहीं पे तीर कहीं पे निशाना

इन्द्र भंसाली ‘अमरÓ
जयपुर, मो.नं. 8949508217

बंदर के हाथ अमरूद आ चुका है। पेट भरा होने पर अमरूद गेंद बन गया। उसे देखकर कभी खाने की इच्छा होती है, कभी खेलने की। बंदर उसे खाता है तो वो पेट भरा होने के कारण अंदर नहीं जाता, थूक उसे वो सकता नहीं क्योंकि मुंह के स्वाद लग चुका है।
संजय राऊत नाम के बंदर के हाथों ने कंगना नाम का अमरूद लपक लिया पर कच्चे अमरूद का स्वाद कसैला होता है, बंदर भी तो स्वाद नहीं जानता। पेड़ से टूटे कच्चे अमरूद को गिरना तो कहीं और था पर लपक लिया किसी और ने, बस यहीं से नई महाभारत प्रारंभ हो गई।
सुशांत की मृत्यु के पीछे वो मात्र संभावित कारणों पर बॉलीवुड में नेपोटिज्म, गु्रपिज्म एवं पक्षपाती रवैये पर कुछ नामों के साथ अपना रूख प्रकट कर रही थी। उसके लिए यह बॉलीवुड की सच्चाई प्रकट करने का बहाना मात्र था पर शायद नियति को कुछ और मंजूर था। कुछ लोग जो अपने पापों को लेकर आत्म ग्लानि से भरे हुए थे वे यह सब जज्ब नहीं कर पाये और अपनी सच्चाई खुद ही खोले बैठे।
एक राजनैतिक पार्टी ने अपनी सत्ता के मद में एक लड़की के खिलाफ अपना मोर्चा खोल दिया। इस प्रकरण ने स्वयं ही सिद्ध कर दिया कि बॉलीवुड में सब कुछ ठीक नहीं है। कुछ लोग हैं जो हर हाल में हर परिस्थिति को नियंत्रित करते रहना चाहते हैं ताकि उनकी रातें रंगीन रहें और चांदी भी कटती रहे।
कंगना रनौत तो मात्र एक टारगेट के नाम पर सामने आ गई। अपने आपको शेर समझने वाले बंदर खीं खीं कर डराने की कोशिश करते रहे और एक बार आजमाने को काटने भी पहुंच गये। कंगना को बोल्ड करने चले थे पर उसकी गुगली का शिकार बन गये। तकलीफ देने वाला कई बार तकलीफ देने वाले से भी अधिक घाटे में रहता है।
ताज्जुब है महाराष्ट्र के इन सत्ताधारी राजनीतिज्ञों के लिए वहां की व्यवस्था संभालने से अधिक आवश्यक हो गया है, कंगना नाम की एक अभिनेत्री से लडऩा, जिसने मात्र अपने उद्गार प्रकट किये थे कुछ लोगों के खिलाफ, उनकी व्यवस्थाओं के खिलाफ, एक सिंडीकेट के खिलाफ जिनसे इन्हें व्यक्तिगत रूप से कोई लेना देना नहीं बनता था। पर इन सत्ता से संलिप्त लोगों की इस कांड से लिप्तता ने यह राज ही प्रकट कर दिया कि इनका कंगना पर आक्रमण लोगों का ध्यान असली मुद्दे से भटकाना है। इन लोगों का वास्तव में उससे कोई लेना देना नहीं। उनका वास्तविक निशाना उस ओर है कि वे जो कुछ भी करते हैं बॉलीवुड में, खुले आम करते रहें, कोई और उनके विरूद्ध आवाज उठाने की कोशिश भी नहीं करे, नहीं तो उसकी आवाज भी कंगना की तरह बंद कर दी जावेगी।
पर यहां पासा उल्टा पड़ गया, कंगना को डराने में ये असफल हुए और संजय राऊत तो बंदर से चूहा बनकर बिल में घुसने को तैयार भी हो गया। शिव सेना ने अपनी कब्र खुद ही खोदना प्रारंभ कर दिया है। संजय राऊत तो स्वयं ही दूसरों के हाथों का खिलौना है अनिल देशमुख की तरह और यह स्वयंसिद्ध हो गया है जब से संजय को पार्टी ने इस विषय पर अपना अधिकारिक प्रवक्ता ही घोषित कर दिया।
हां, कुछ सफलता इन अर्थों में मिली भी है कि वे मीडिया के लिए मनोरंजन और टी.आर.पी. बढ़ाने का कारण बन गए हैं और जनता एवं मीडिया दोनों को मूल मुद्दे से भटकाने में सफल होते प्रतीत हो रहे हैं क्योंकि सुशांत और दिशा सालियान की मौत की जांच से इनका कुछ ध्यान कंगना की तरफ आ गया है। मीडिया रात और दिन पागलों की तरह वही दिखा रही है जो शिवसेना सबको दिखाना चाहती है।
बात जब उठती है तो दूर तलक जाती है और अपना निशाना खुद ही साध जाती है। बस देखने वाला चाहिए, कंगना को जलील करके इन्हें क्या हासिल होने वाला है, वह तो ‘खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झांसी वाली रानी हैÓ, बन ही गई है। डर यह है कि कुछ गुंडे धृतराष्ट्र की तरह तन, मन दोनों से अंधे होते हैं पर दुर्योधन को जिताने के लिए किसी भी हद तक कुछ भी कर गुजरने को तैयार रहते हैं। एक अभिनेत्री के पीछे एक पार्टी अपनी पूरी शक्ति के साथ पड़ गई तो समझ में आता है कि पार्टी में सेाच का वास्तविक स्तर क्या है? कंगना ने थोड़ी सी सच्चाई क्या बयां की कि उन लोगों को भी मिर्ची लग गई जिन्हें छोंक में डाला ही नहीं गया था। इसका स्पष्ट मतलब है कि ये सब भी उसी हमाम में शामिल है जहां से सुशांत और दिशा सालियान की मौत की बात उठती है।
दिशा सालियान की मौत को बिल्कुल तवज्जो नहीं दी गई, क्यों ? किसके इशारे पर? उसके मां बाप तो बेचारे गूंगे ही रह गये, कहीं उनको किसी तरह की धमकियां तो नहीं मिली? क्या पूरा घटनाक्रम अपनी कहानी खुद बयां नहीं करता कि, उसके साथ क्या हुआ होगा और सुशांत भी उसी कड़ी का एक सिरा हो सकता है।
यहां बेचारी लड़की जान से गई और किसी बंदे ने चूं भी नहीं की। क्या एक अच्छी खासी पार्टी में से उसे ऊपर से कूदने पर बाध्य किया गया या उसे कूदना पड़ा अथवा उसे वहां से धक्का देकर नीचे गिरा दिया गया, किसी ने इसमें रूचि ली? क्या वह किसी प्रकार की राजनीति का शिकार नहीं हुई? क्या उसकी मौत की जांच भी इसी शिद्दत से की जावेगी, इसका जवाब किसी के पास नहीं है। रक्षक जब भक्षक बन जायें तो तक्षक बनते देर नहीं लगती। यह सब मात्र इसलिए कि उसके पीछे कोई राजनैतिक हस्ताक्षर नहीं है।
इधर कंगना का बंगला तोड़कर उससे सार्वजनिक रूप से बदला लिया है, महाराष्ट्र की सरकारी सेना ने। कहते हैं जब बात मुकाबिल हो तो लात से मुकाबला करने वाले राजनीति में कमजोर माने जाते हैं और जब राजनीति खुले आम गुंडा गर्दी पर उतर आये तो समझ लेना चाहिए कि वह उनका नैराश्य क्षणों का सत्ता के लिए सतत संघर्ष का हिस्सा है वरना कंगना जैसी कमजोर कड़ी पर हाथ आजमाना कमजोरी ही नहीं, बेवकूफी भी सार्वजनिक रूप से जाहिर करने वाली बात है।
पर यहीं से स्वयंसिद्ध है कि, ये सारे दांव पेच कुछ लोगों की इन घटनाओं से उनकी संलिप्तता से ध्यान बंटाने के लिए है और कंगना को अत्याचार का शिकार बनाया जा रहा है। वहां अदालतों में कितना न्याय बचा है, अब वे कसौटी पर है? कंगना की देशभक्ति संदेह से परे है, वह आज बॉलीवुड के मर्द होने का प्रतीक बन गई है। बॉलीवुड में उसके साथ कितने खड़े हैं, यह उनकी भी परीक्षा का समय है। निडर होना ही ईमानदारी का प्रतीक है, निडर होना जीवंतता का अभिषेक है, मात्र पैसे के लालच में बुत बने ये लोग हैं या समस्त शोषक वर्ग आपस में मिल कर एक हैं। यह सब समय तय करेगा। राम राम!

अभिषेक लट्टा - प्रभारी संपादक मो 9351821776

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