डाक विभाग कॉलोनियों में जाकर खोल रहा है सुकन्या समृद्धि खाते
संस्कृति में विकृति की सेंध
इन्द्र भंसाली ‘अमरÓ
जयपुर, मो.नं. 8949508217
आज हर सरकार, दूसरे राज्य की सरकार से अपने नंबर बढ़ाना चाहती है, मात्र यह कहकर कि देख मेरी कमीज तेरी कमीज से उजली है। अपनी कमीज का कालापन, जो उतरता नहीं, जो लगातार बढ़ता ही जा रहा है, उस पर कोई ध्यान नहीं देता। तुम्हारे यहां हमारे राज्य से ज्यादा अपराध हुए हैं, हमारे राज्य में तुम्हारे राज्य से कम बलात्कार हुए हैं, हमारे यहां के अधिकारी तुम्हारे राज्य के अधिकारियों से इसलिए बेहतर हैं कि भ्रष्टाचार के नाम पर वे कम पकड़े गये हैं, हमारे यहां पुलिस का चरित्र तुम्हारे राज्य की पुलिस के चरित्र से बहुत अच्छा है। यही सब कह सुनकर, समझकर, अपनी आंखें, कान, हृदय की संवेदनशीलता के दरवाजे बंदकर हमारे नेताओं ने अपनी पीठ को इतना थपथपाया है कि वे ढोलक की श्रेणी में आ गये हैं, जबकि राज्य की सरकार का चरित्र अपराधों की गिनती से नहीं तय होता, अपराधों पर की गई त्वरित एवं न्याय संगत कार्यवाही से तय होता है। फिर यह तो एक अलग ही विषय है कि आखिर इतने अपराध होते क्यों हैं ? ढोलक भी जानती है कि उसकी आवाज स्वयं की नहीं बल्कि उसके अंदर मौजूद हवा के कारण है इसलिए अपने हर अंग को रस्सियों से जकड़ी रहती है ताकि शर्मिंदगी से बच सके।
समाज में कुछ नेताओं और सामान्य लोगों की प्रवृति तो उच्छृंखल ही होती है। कमाने के लिये निकले हैं, जितना माल जहां से हाथ साफ कर सको, कर लो। जो अपनी सफेदी की चमकार दिखा पाता है जमकर, वोट देती है जनता। उसे बेवकूफ बनकर, उसकी मूंछ उतनी ही उमेठी हुई मिलती है तनकर। यंू रोब गालिब होता है चेहरे का नूर बनकर, अभी तो और जलवा देखना है इससे भी बढ़कर, अभी वक्त आया नहीं इन्हें देखने का सहमकर। अभी तो देखना है खोखलापन ऐसे लोगों का, कि पहचाने इन कंटकों को, बैठे हैं यहां जो, साधु का भेष रखकर।
सरकारें कितनी अच्छी या निकम्मी हैं, यह ज्ञात होता है उनकी कार्य शैली से। उनके द्वारा बनाये गये तंत्र के द्वारा काम की गति एवं नीयत से, उनके द्वारा जनता के प्रति किये गये व्यवहार से, प्रशासन की ईमानदारी से, निष्पक्ष व्यवहार से, संस्कारी व अच्छे अधिकारियों को प्रश्रय एवं प्रशंसा की दृष्टि से देखे जाने पर, उन्हें प्रोत्साहित किये जाने पर। पर यहां तो छोटे छोटे पदों के सृजन में, चयन में, स्थापन में भी राजनीति है। तीसरी श्रेणी के अध्यापक से लेकर आई.ए.एस तक इनकी दया पर रहते हैं तो इनसे निष्पक्षता की आशा कैसे की जा सकती है। जो राजनीति का शिकार होंगे वे भी तो राजनीति ही करेंगे। अब यदि सारे सृजन, चयन व स्थापन मेरी पसंद, तेरी पसंद, मेरी सुविधा, तेरी सुविधा के आधार पर ही होंगे तो सरकारी कामकाज की गुणवत्ता कैसी होगी, हम सब समझ सकते हैं।
समय पर निर्णय न लेना भी भ्रष्टाचार का ही जनक है। दुनिया में काम का प्रवाह तो वायु के प्रवाह जैसा है जो कभी रूकता नहीं। जो सरकार आती है और अपनी सुविधाओं में कोई कटौती करने को तैयार नहीं बल्कि बढ़ाने में कोई संकोच नहीं होता, वही रात-दिन यह सोचती है कि जनता की जेब में कहां, कब और कैसे छेद करना है, उससे आशा भी कैसी लगाई जा सकती है कि वह वास्तव में जनता के लिये हैं। उनको तो येन केन प्रकारेण अपना खजाना भरना है।
चुनाव में सरकारें आती, जाती ही इसलिए हैं कि जनता के मापदंड पर कोई खरा उतर ही नहीं रहा। उसे तो सांपनाथ या नागनाथ में से ही किसी को चुनना है, चुन भी लेती है और हर बार अपना ही सिर धुनती भी रहती है। रात-दिन कर्मचारी-अधिकारी रिश्वत खाते पकड़े जाते हैं, पर कितनों के खिलाफ कार्यवाही होती है या हो पाती है, इसके लिए सरकारी तंत्र कटघरे में ही खड़ा दिखाई देता है बिल्कुल अक्षमरूप से, लुंज-पुंज क्योंकि बेईमानी को हटाने का साहस बेईमानी से कैसे संभव होगा? ईमानदारों को निष्पक्ष एवं निर्भीकता से काम करने दें, तभी बात बनेगी।
जिस भी विभाग में देखेंगे, पायेंगे सड़ान है बस उसे ढकने का प्रबंध किया जाता है, समाप्त करने का नहीं। जैसे सरकारें स्वयं ऐसे लोगों को पालती हैं जो उन्हें पटाकर, उनसे सारी सुविधायें, लाइसेंस लेकर सोसाइटीज बनाते हैं, लोगों से अथाह पैसा इक_ा करते हैं, घपला करते हैं और कुछ वर्ष बाद गायब हो जाते हैं या उनकी जब तक करतूत सामने आती है, तब तक हजारों, लाखों लोगों का पैसा लेकर चंपत हो जाते हैं या पकड़े भी जाते हैं तो जमानत या पैरोल पर बाहर आकर उसी ऐश्वर्य से रहते नजर आते हैं जैसे यह सारा पैसा उनके बाप का ही था।
सरकारी मशीनरी दुनिया के सामने ढोल अवश्य पीटती है कि न्याय किया जायेगा, एक एक आदमी को उसका पैसा वापस मिलेगा पर वास्तव में ऐसा हो नहीं पाता क्योंकि घोंघे की चाल से खरगोश नहीं पकड़े जाते। कितने युद्ध हो गये शुद्ध के लिए पर न मिलावट कम हुई, न ही मिलावटिये। पता नहीं सजा क्यों नहीं मिलती किसी को? सरकार की अक्षमता है या सरकारी कर्मचारियों की या ये कोई मिलीभगत है, कोई नहीं जानता।
हां, जनता को जरूर भुगतना होता है, अपने पैसे से, अपने स्वास्थ्य से। हर जगह नैतिकता ताक पर रखी हुई प्रतीत होती है। जितना हो सकता है उतना माल, खींच सके तो खींच, पंछी तो उड़ जायेगा, मची रहन दे कीच। खनन विभाग तो दूध देने वाली गाय है फिर उसमें बजरी वालों की तो कहानी इतनी पुरानी हो चुकी है कि उनके हत्थे चढऩे पर पुलिस वाले भी बिचारे मृत्यु को मौसी मान बैठे हैं। कौन कब गाड़ी किस पे चढ़ा दे, गाड़ी चढ़ा के अपना रूतबा बता दे, शर्म आती है रक्षा करने वालों की बेचारगी पर, अब कोई नया पाठ इनको भी पढ़ा दे। सरकार के माथे पर जूं भी नहीं रेंगती।
बजरी का सारा ही कारोबार अवैध है क्योंकि सरकारी खाते में बिना टैक्स जमा हुए जो भी खनन होता है, वो सरेआम द्रौपदी का चीर बनाकर बेचा जा रहा है और सारे कौरव, पांडव कुछ दु:शासनों एवं दुर्योधनों की मेहरबानी पर नजर आते हैं। यही है सरकारी पंगुता, उसके धृतराष्ट्री शासन की जो न देखती है, न देखने देती है। जिस भी क्षेत्र में देखो संस्कृति में विकृति की सेंध लग चुकी है। अब यह तो शुरूआत है, कलम तो कितनी भी घिस लो, किस पर फर्क पडऩे वाला है, दबंगई बढऩे लगी है नंगई की ओर, अब किसका क्या उधडऩे वाला है ? जब गुनाहों की सजा भी यहां मिलती नहीं किसी को, समाज में बढ़ती सड़ांध को कौन रोकने वाला है ?