डाक विभाग कॉलोनियों में जाकर खोल रहा है सुकन्या समृद्धि खाते
ना छाजला रहा और ना ही छाजला बनाने वाले
रामस्वरूप रावतसरे (शाहपुरा, जयपुर)
मो. 98285 32633
कबीर दास जी ने पता नहीं क्या सोचकर यह बात कही थी कि, ‘साधू ऐसा चाहिये जैसे सूप सुहाय, सार सार को गहि रहे थोथा देई उड़ायÓ। आज यह दोहा न तो साधुओं पर फिट हो रहा है और ना ही सूप यानि छाजले पर क्योंकि अब साधू वही लाईन पर माना जाता है जहां पाखण्डी एवं थोथे लोगों का जमावड़ा अधिक हो। सार रूप में भाव और स्वभाव रखने वाले साधू के लिए इस समाज में स्थान कम ही रह गया। उसी प्रकार सूप (छाजले) की घर घर में आवश्यकता रहती थी। उसे अनाज साफ करने से लेकर मांगलिक कार्यक्रमों में भी विशेष स्थान प्राप्त था। पर ज्यों ज्यों आम आदमी की सोच में पाश्चात्य संस्कृति एवं खुलेपन ने स्थान लिया है। भारतीय संस्कृति के कई रिवाजों में शहरोंं में ही नहीं गांवों में भी परिवर्तन आया है।
कभी छाजले बनाने वाले प्रत्येक गांव में रहते थे। प्रत्येक घर में छाजला उपलब्ध कराते थे। बदले में उन्हें अनाज एवं अन्य आवश्यकता का सामान या फिर राशि उपलब्ध हो जाती थी। जिससे उनका घर खर्च चलता था। आज ना तो घरों में छाजले नजर आते हैं और ना ही गांवों में छाजले बेचने वाले।
छाजला (सूप) सरकण्डे एवं चमड़े की बारीक तांत से बनाया जाता था। गृहणियां अपनी आवश्यकता के अनुसार छोटे बड़े छाजलों को खरीदती थी और उसे शुद्ध कर घर में प्रवेश देती थी। यह छाजला खेतों में अनाज निकालने से लेकर घरों में अनाज एवं अन्य खाद्य सामान को साफ करने के कार्यों में महत्वपूर्ण स्थान रखता था। आज खेतों में प्रत्येक प्रकार का अनाज निकालने में थ्रेसर मशीनों का उपयोग होने लगा है। जिससे अनाज सीधे ही बोरियों में भरा जाता है।
घरों में रसोई का अधिकतर सामान पिसा हुआ बाजार से लाने का चलन बढऩे से अनाज या मसाले साफ करने का झंझट ही नहीं रहा है। पहले बाजार से जो मसालों का सामान आता था, गृहणियां छाजले से उसका कूड़ा करकट, कंकड़ आदि साफ करती थी और उसके बाद घर में ही उसकी कुटाई या पिसाई का कार्य होता था। पर आजकल जहां घर से बाहर खाने का चलन बढ़ा है, वहीं सहज सुलभता की मानसिकता ने गृहणियों को भी बाहरी पैकेट बंद खाद्य सामग्री की ओर आकर्षित किया है।
आज की नई पीढ़ी पके पकाए का ज्यादा ध्यान रखती है, ना कि पकाने का। यही कारण है कि इस सोच के परिवर्तन ने भारतीय समाज से जुड़े कई महत्वपूर्ण संसाधनों को गौण करके रख दिया है। दीपावली के दूसरे रोज गोवर्धन पूजन के समय गृहणियां सुबह जल्दी उठकर पूजा के अन्य उपक्रमों के साथ साथ छाजले से अनाज फटकने (साफ करने) का उपक्रम करती थी और यह मन्नत मांगती थी कि उनके यहां पर अधिक से अधिक अनाज हो, पर इस खुलेपन की हवा ने जहां भारतीय संस्कृति के कई मिथकों में परिवर्तन ला दिया है, वहीं गोवर्धन पूजा का महत्व भी कम समझा जाने लगा है। ऐसे में छाजला कहां रह पाता? ग्रामीण महिलाओं के लिए छाजला अनाज एवं अन्य खाद्य सामान की सफाई का उचित साधन माना जाता था। आज खेतों में थ्रेसर मशीनों के चलन एवं रसोईघरों में बंद पैकेटों के सामान ने छाजले को अनुपयोगी बना दिया है।
इस सम्बन्ध में काश्तकारों का कहना है कि आज की महिलाएं यह भी नहीं जानती कि छाजले को किस प्रकार उपयोग लिया जाता है। बाजार से सीधा रसोइघर में आने वाले सामान की शुद्धता की कोई गारंटी नहीं होती और पिसे हुए मसालों में किस प्रकार मिट्टी, ईंट, बुरादा एवं अन्य गला सड़ा सामान मिला होता है, यह आये दिन पढऩे सुनने को मिलता है। पहले बाजार से रसोई का जो भी सामान आता था, उसे घर की महिलाएं पहले साफ करती थी, उसके बाद उसे अपने हाथों से ही पीसती थी, इस सामान की शुद्धता शत प्रतिशत रहती थी। इन मसालों का स्वस्थ्य पर अनुकूल असर पड़ता था। बाजार से क्रय किया जाने वाला पीसा हुआ तथा डिब्बा बन्द सामान किसी भी स्तर पर शुद्ध नहीं होता। यही कारण है कि आज हम कई असाध्य बीमारियों से जूझ रहे हैं।
छाजला बनाने वाले, छाजले में लगाई जाने वाली सरकण्डे की ताडिय़ों का विशेष ध्यान रखते थे, छाजले में शुभ अशुभ के आधार पर 31 या 51 ताडिय़ों का ध्यान रख कर उसे बनाया जाता था। यही नहीं उसकी बनावट भारतीय संस्कृति से जुड़े पहलुओं को ध्यान में रखकर की जाती थी। आज आधुनिकता की आंधी ने भारतीय समाज के कई आधार स्तम्भों में परिवर्तन ला दिया है। ऐसे में वक्त बे वक्त काम आने वाला छाजला भी अपना स्थान लगभग छोड़ कर जाने को बाध्य हो गया है।