डाक विभाग कॉलोनियों में जाकर खोल रहा है सुकन्या समृद्धि खाते
क्या गाल बजाना ही काबिलियत का प्रमाण है?
रामस्वरूप रावतसरे (शाहपुरा, जयपुर)
मो. 98285 32633
आज कल राजनेताओं के इस प्रकार के ब्यान आ रहे हैं जिनसे देश या देश की जनता का किसी भी रूप में सरोकार नहीं है। ये बयान उनकी राजनेतिक परिपक्वता पर भी प्रश्नचिन्ह खड़ा करते हैं लेकिन बयान आ रहे हंै। उन बयानों में अपनी ओर से मसाला मिला कर कुछ नेता तो हाथों हाथ लेते हैं और कई दिनों तक अलग अलग शब्दों को उस तथाकथित बयान से जोड़ कर दण्ड पेल व्याख्या करते हैं। इलेक्ट्रोनिक मीडिया भी उसका शाब्दिक चित्रण हर कोण से पेश करने की हर सम्भव कोशिश करता है ताकि किसी प्रकार कोई सड़ी गली परत उघडऩे से रह नहीं जाए। बयानों को चुइंगम की तरह चबाते बड़े बड़े लोगों की बहस देख कर लगा कि क्या हम उसी भारत में है जहां 135 करोड़ के लगभग जनता रहती है या कि उससे भी कहीं आगे निकल गये हैं।
खैर शिखर पर बैठा व्यक्ति कितनी भी गलत बात करे, उसके समर्थन में कई लोग आ ही जाते हैं लेकिन इस बात पर ताज्जुब हो रहा है कि जब भी कोई बात देश के सामने आती है। इस प्रकार की बयानबाजी क्यों चौराहों पर आ खड़ी होती है। जिसका आम जनता के जीवन से कोई सरोकार नहीं होता है। क्या ऐसे बयानों के पक्ष और विपक्ष में रहने से देश का विकास रूक गया या अधिक गति पकड़ गया? या जनता को रोजमर्रा की समस्याओं से दो चार नहीं होना पड़ेगा या अधिक होना पड़ेगा। इस प्रकार की बहस देख कर लगता है कि इन लोगों को देश या देश के नागरिकों से कोई लेना देना नहीं है उन्हें किसी बात की चिन्ता है तो सिर्फ यह कि जिस स्थान पर वे बैठे हैं वह कोई ओर ना हथियाले। उन्होंने जो आवरण अपनी सुरक्षा और सुविधा के लिये बना रखा है। उस तक और कोई ना पहुंच जाय।
आज देश में किस प्रकार की स्थिति है। आम जनता किन कारणों से परेशान है। हमारा राजनैतिक नेतृत्व क्यों चौराहे पर खड़ा है। उसको एक दूसरे पर छींटाकशी करने के अलावा और कोई बात क्यों नहीं सूझ रही है। विपक्ष चाहता है पक्ष सत्ता छोड़े लेकिन किन उपायों और योजनाओं से जनता की परेशानी को दूर किया जा सकता है। इस पर वह भी लम्बा मौन साध लेता है।
हमारे यहां निकृष्ठता की भरमार है लेकिन बहुत से ऐसे लोग है जो जनहित के कामों में लगे हैं। जिन्हें आगे लाने से दूसरों को भी प्रेरणा मिल सकती है। इस पर शायद ही कोई बहस करने व कराने को तैयार हो। यदि किसी ने ऐसा कर दिया तो सबसे पहले वह सत्ता पक्ष का विरोधी होगा और उसके बाद विपक्ष का। अन्ना हजारे के लोकपाल आन्दोलन में भ्रष्टाचार का मुद्दा काफी गहरा गया था। उस समय वरिष्ठ लोगों के ऐसे ब्यान आने शुरू हो गये थे कि, ‘ऐसे आन्दोलन करने से विदेशों में देश की छवि गिर रही है।Ó शायद ऐसा होता होगा लेकिन जिन कारणों से या कामों से देश की छवि सुधर सकती है, उन्हें हम किसी भी सूरत में अपनाना नहीं चाहते। हमारा उद्देश्य यही रहता है कि जब तक बस चले सामने वाले (जनता) को भ्रमित रखो चाहे हम उसी के बल पर शिखर पर आये हों।
आज पक्ष और विपक्ष इस बात पर ही मंथन में लगे हैं कि किस प्रकार सत्ता में बने रहने के लिए जनता में अपने आपको बनाऐ रखा जावे। उसके लिये जन समस्याओं के काल्पनिक तूफान लाकर ऐसा माहोल तैयार कर दिया जाता है कि भारत में रहने वाला व्यक्ति इनके लिये मरने मारने को आमने सामने खड़ा हो जाय लेकिन भारत की जनता अब सब कुछ समझने लगी है। उसने अपनी सोच को ‘सियासी पंैतरेबाजीÓ जैसे शब्दों से आगे निकाल लिया है। वह धरातल पर समस्याओं का समाधन और विकास चाहती है। वह बेरोजगारी, मंहगाई, भ्रष्टाचार, आतंकवाद तथा राजनैतिक निकम्मेपन से निजात पाना चाहती है। उसे राजनैतिक स्तर पर वह कर्मठता और श्रेष्ठता चाहिये जो उसकी समस्याओं का समाधान करने के साथ साथ उसका सिर भी ऊंचा कर सके। ऐसा नहीं होने पर उसे भी करवट लेना आता है, जिस प्रकार प्रकृति करवट लेती है।
कोरोना काल में जनता ने हजारों हजार कष्ट उठा कर भी जिस संयम का परिचय दिया है। इस संयम का प्रति उत्तर सरकारों की ओर से जन समस्याओं के समाधान के रूप में होना चाहिये। ना कि राजनीतिक गुणा भाग के अनुसार। जो लाखों हाथ अब तक किसी ना किसी रूप में विकास का हिस्सा थे, वे अब भी विकास में सहभागी बन सकते हैं। सम्बन्धित राज्य सरकारों को चाहिये कि इनके नियोजन की कार्यवाही जल्द से जल्द करे अन्यथा बिना काम के हाथ और दिमाग खुराफात की ओर जल्दी बढ़ते हंै। यह समय कोरोना वायरस से लडऩे के साथ साथ लाखों मजदूरों को काम पर लगाने का भी है। समय को समझ कर ही समाधान की ओर बढऩा श्रेयकर रहता है अन्यथा बेरोजगारी कई समाज विरोधी बीमारियों को जन्म देती है। शायद जनता से ‘सत्ता सुखÓ की अपेक्षा रखने वाले समय की आवश्यकता और उसकी भाव भंगिमा को भी समझेंगें।