देसी घोड़ी लंगड़ी चाल

 देसी घोड़ी लंगड़ी चाल

इन्द्र भंसाली ‘अमरÓ
जयपुर, मो.नं. 8949508217

बरसात का उत्सव अब उतार पर है। जिन्हें इनके आने पर खुशी थी, वे भी कई जगहों पर इससे पनाह मांगते पाये गये। जिस देश में प्रजा सरकार के भरोसे पर रहती है, वहां तो गीले में सूखा ही नजर आता है। जिनका आटा ज्यादा गीला हुआ, वे तो घबराये ही थे जिनका सूखा रह गया उन्हें लगता है उनकी दुआ कबूल नहीं हुई।
हैरत की बात तो यह रही कि मात्र कुछ घंटों की बरसात ने जयपुर वालों को तो पानी का जलजला दिखा ही दिया। समस्त विकास योजनाओं की पोल भी खुलती नजर आई। प्रकृति की भयावहता तो अपनी जगह हमेशा रहेगी पर तरक्की की अभूतपूर्व योजनाओं में क्या बारिश के इस भयावहपन को कम करने के लिए कोई योजना है? क्या इस बारिश के पानी के एकत्रित करने की कोई योजना है ? क्यों गरमी आते ही नलों में सूखा पडऩे लगता है?
हमारे नेतागण लगता है अपने सियासी दांव पेचों से उभर ही नहीं पाते या उनमें दूर दृष्टि का इतना अभाव है कि सब कुछ प्रकृति से मिलते हुए भी लापरवाही से बाज नहीं आते। इनके आवासों के नलों में तो भरपूर आवक है। गांवों में अगर पानी नहीं पहुंच पाता, किसान को पूरा पानी नहीं मिलता तो इन्हें क्या फर्क पड़ता है? उसकी उपज में कमी आने का अर्थ है उसकी तरक्की, समृद्धि में हम ही बाधा है फिर फसल, उपज का पूरा सही दाम भी उन्हें नहीं दिलवा पाते। कमी किसानों में भी है वे आज भी आधुनिक खेती को पूरी तरह से अपना नहीं पाये हैं, उनका अपनी उपज को लेकर प्रबंधन बहुत कमजोर है।
सरकार उनकी उपज के प्रबंधन का मसला हल ही नहीं करना चाहती क्योंकि किसान गरीब नहीं रहेंगे तो उनकी वोटों की फसल कमजोर हो जायेगी। विकास, उन्नति मनुष्य के दर पर जब आ खड़ी होती है तो दिमाग की बत्तियां अपने आप जलने लगती हैं और निर्णयात्मक शक्ति भी बढ़ जाती है।
निर्बल, कमजोर, दरिद्र किसान तो बेचारा रोटी, पानी की समस्याओं से ही नहीं जूझ पाता, इनकी सियासी चालों को वह क्या समझेगा? आजादी के 73 वर्ष पश्चात भी हम क्या गर्व करने लायक लोकतंत्र बना पाए हैं, जहां लोगों को सस्ती बिजली व साफ पानी भी पूरे क्षेत्र में उपलब्ध नहीं करा पाये।
क्यों पानी के लिए लाइनें लगती हैं? क्यों कई गांवों में महिलायें बच्चे पानी की कतारों में लड़ते नजऱ आते हैं, क्योंकि साफ पानी तो दूर की बात है, आज पीने के लिए भी पानी उपलब्ध नहीं करा पाई सरकार। किसानों को उपज के वास्ते आज भी पानी के लिए मशक्कत करनी पड़ती है, इसमें हैरानी की क्या बात है?
यहां तक कि इंदिरा गांधी नहर में पूरे पानी की उपलब्धि के लिए भी कोई प्रयत्न नहीं किये जाते और पानी जैसी चीज भी चोरी होती है और कभी कभी तो हत्याएं भी हो जाती हैं इस पानी के चक्कर में। सरकारें आती हैं, जाती हैं मगर इनके जूं भी नहीं रेंगती। पहला प्रयास तो बरसात के पानी का प्रबंधन ठीक होना चाहिए, इसे उचित रूप से स्टोर करने के लिए उपाय होने चाहिए। फिर पंजाब की जिन नदियों से इन नहरों में पानी की आवक है, उसका भी उचित प्रबंधन राज्य सरकारों को केंद्र सरकार की सहायता लेकर करना चाहिए क्योंकि वहां की नदियों में अथाह पानी है।
हम पानी को मुफ्त पाकिस्तान को तो भेज सकते हैं, मगर अपने ही राज्य के लोगों को इस पानी की उपलब्धि नहीं करा पाते, क्या यह सरकारों का निकम्मापन नहीं है? इस देश की जनता तो भोली है, सीधी है, बंटी हुई है, उनमें ऐसा कोई नेतृत्व नहीं जो उनकी आवाज उठा सके। वहां के चुने हुए प्रतिनिधि भी सोये शेर ही हैं वरना उनकी अक्ल पर सियासी पत्थर क्यों पड़े रहते? क्या वे सही मायने में जन प्रतिनिधि हैं भी, यही प्रश्न बार-बार मन में उठता है?
बरसात के पानी का प्रबंधन इच्छा शक्ति पर निर्भर करता है फिर वह चाहे जनता की हो या सरकार की। प्राचीन समय में हर बस्ती, हर मोहल्ले में कुएं होते थे, जो बरसात में रिचार्ज हो जाते थे। जलाशय थे, बावडिय़ां भी थी जिनमें बरसात का पानी एकत्रित होकर समाज की जरूरतों को पूरा करता था।
हमारे विकास ने हमें साधन दिये और घर-घर पर पानी पहुंचने लगा। पर इस विकास में हम कहीं कुछ पीछे छोड़ आए। पानी का जो प्राचीन प्रबंधन था, उसे हमने त्याग दिया। गांव, शहरों, बस्तियों, मोहल्लों के आसपास जो जलाशय, बावडिय़ां इत्यादि थे, उन्हेें बंद कर दिया गया। कुएं भी बीते जमाने की बात हो गई। बोरिंग के माध्यम से नलकूप बनाकर पानी को पहुंचाया जाने लगा।
पानी के आवश्यक व अत्यधिक उपयोग से जमीन में भी पानी का स्तर नीचे और नीचे जा रहा है। स्वतंत्रता के पश्चात् से ही नदियों के जोडऩे की बात उठती रही है पर इस दिशा में आज तक कोई कदम नहीं उठाया गया। बाढ़ के पानी के प्रबंधन के लिए इससे बेहतर व्यवस्था नहीं हो सकती। नालियां, नालों को बंद कर दिया या उनकी उचित सफाई बंद हो गई। कागजों में यह प्रबंधन जारी था पर उनकी वार्षिक सफाई भ्रष्टाचार का शिकार हो गई। सीवरेज लाइन की सफाई भी स्वयंमेव एक योजनामय ढंग से नहीं हेाती।
कुल मिलाकर इतने सतही तौर पर यह प्रबंधन होता है कि वह मात्र खानापूर्ति ही है और इसलिए थोड़ी सी बरसात में पूरे शहर में त्राहि-त्राहि मच जाती है। गाडिय़ां बहने लगती हैं, लोगों की जान पर बन आती है, जनता भी अपने कत्र्तव्यों पर ध्यान नहीं देती। वह घरों के कचरे को गाडिय़ों में डालने की बजाय नालियों में, नालों में या सड़कों पर ही डाल देती है जो बरसात में इन नालियों व नालों को अवरूद्ध कर देता है।
ऐसा नहीं है कि प्राचीन व्यवस्थाऐं पूरी तरह समाप्त हो गई हैं, वे वास्तविकता में उपेक्षित हो गई हैं और इनकी गाद, मिट्टी भी निकाली नहीं जाती, नतीजतन अधिक बरसात में वे नाले व जलाशय जो बचे हुए हैं, शीघ्र ही भर जाते हैं। छोटी नदियों को गहरा किया जा सकता है, उनमें छोटी छोटी नहरें निकाली जा सकती हैं, पर जनप्रतिनिधियेां को इन सब बातों से न मतलब है, न समझ है। वे तो सब कुछ खराब होने पर मुआवजे की बात करते नजर आते हैं क्योंकि इससे उन्हें प्रचार मिलता है, शोहरत मिलती है और सबसे बड़ी बात कि उन्हें वोट मिलते हैं।
लीडर वह होता है जो प्रेरणास्पद कार्यवाही की अगुवाई स्वयं करे। मगर आज के नेताओं को सियासी दावपेचों के अलावा कोई काम सूझता ही नहीं। जनता को अपनी आवाज उठानी नहीं आती, वे तो इनके दर्शन से ही पिघल जाते हैं। दोनों ही धन्य हैं, यही हमारे लोकतंत्र का सच्चा स्वरूप है। दोनों की जय जय! जो हो रहा है होने दो, अपराधों को बीज बोने दो, वो ही रोयेगा जिसके चोट लगी है, बाकी सब लोगों को सोने दो। राम राम !

अभिषेक लट्टा - प्रभारी संपादक मो 9351821776

Related post