हमारी समझ पर भगवान भी हंसते हैं

 हमारी समझ पर भगवान भी हंसते हैं

रामस्वरूप रावतसरे
स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने एक प्रसंगवश कहा कि, इस संसार में हमारा कुछ भी नही हैं फिर भी हम मेरे तेरे में लगे रहते हैं। यही देख कर भगवान हंसते हैं। एक शिष्य ने कहा स्वामी जी भगवान कब -कब हंसते हैं। स्वामी जी बोले, ‘भगवान दो बार हंसते हैं।Ó उस शिष्य ने फिर उत्सुकतावश पूछा, वह किस प्रकार ? स्वामी जी ने कहा मैं तुम्हें दो भाईयों की बात बताता हूं, एक गांव में दो भाईयों में झगड़ा हुआ और घर तथा खेत की जमीन को रस्सी लेकर बांटने लगे। रस्सी से जमीन नापने के बाद बड़े भाई ने कहा, इस ओर की जमीन मेरी है और उस ओर की तुम्हारी है। भगवान यह सोचकर हंसते है कि, यह संसार है तो मेरा और ये लोग जिनकी उम्र छोटी सी है उस मिट्टी को बांटने की कोशिश कर रहे हैं जो वर्षो पहले भी यहीं थी और आने वाले लाखों वर्षो तक भी यहीं रहेगी। उसे लेकर ये कह रहे हैं कि, इस ओर की मेरी, उस ओर की तुम्हारी है।
भगवान एक बार और हंसते हैं। बच्चा बीमार है मां रो रही है। डॉक्टर आकर कह रहा है -डरने की क्या बात है! मैं आ गया हूं सब अच्छा कर दूंगा। डॉक्टर नहीं जानता कि यदि भगवान ही मारना चाहे तो किसकी शक्ति है, जो अच्छा कर सके? जो वस्तु हमारे अधिकार क्षैत्र में ही नहीं है उसके लिये हम अधिकार स्वरूप प्राप्त करने का प्रयास करते हैं और उसे भूल जाते हैं जो सब का पालन करने वाला है या जिसका सब कुछ है।
हम नाहक जिन्दगी भर बैल की तरह लगे रहते हैं। मेरा -मेरा कर सम्पति जोड़ते हैं। वह जोड़ी गई सम्पति यहीं की यहीं रह जाती है। साथ लेकर जाते हैं तो भले और बुरे का भाव। फिर क्यों इस प्रकार हम अपनी जीवनचर्या को अंधेरे कुऐं में धकेल कर सुखी होने का भ्रम पाले हुए हैं।
आज प्रत्येक व्यक्ति का जीवन बाजार के आधार पर चलने लगा है। घर भी अब घर नहीं रहा है। वहां भी बाजार के मोल भाव आ गये हैं। ये मोल भाव जब तक व्यक्ति के अनुकूल रहते हैं, तब तक घर के तमाम सदस्य आपस में मिलकर रहते हैं। जब इनमें अपने स्वार्थो को लेकर तारतम्य बिगडऩे लगता है। सारे प्रगाढ़ सम्बन्ध यानि मां बाप भी अवान्छनीय हो जाते हैं। तब ये सब आत्मा की भाषा नहीं बोलते, ये शरीर की भाषा बोलने तथा समझने लग जाते हैं। जो कि यहीं से उत्पन्न हुआ है और यहीं समाप्त होने वाला है यहीं से हमारा पतन शुरू होता है।
हम जिस आर्थिक समृद्धि को पाने के लिये अपने प्रिय जनों को भी बाजार के आधार पर तोलते हैं। वह हमें शारीरिक सुख अवश्य देता है लेकिन वह हमें कभी भी आत्मिक शान्ति नहीं देता। व्यक्ति जब तक बाजार में खड़ा रहता है उसकी आपाधापी बढ़ती रहती है। इस आपाधापी में ही व्यक्ति अपना सुकून ढंूढ़ता है जो कि उसकी सबसे बड़ी भूल है। हमें चाहिये सब कुछ को परमात्मा के भरोसे छोड़ कर अपने कर्म को ईमानदारी से करें। जैसी संगत वैसे विचार, जैसे विचार वैसे कर्म एवं संस्कार बनते जाते हैं।
जैसा कर्म होगा उसका फल भी उसी प्रकार मिलता चला जावेगा। इस अर्थ के युग में हम साधनों के भरोसे सफलता प्राप्त करना चाहते हंै। सफलता मिलती है लेकिन यह सफलता शारीरिक सुख तक ही सीमित रहती है। साधनों के भरोसे अर्जित सफलता से मानसिक सुख कभी भी प्राप्त नहीं होता। जब तक मानसिक सुख प्राप्त नहीं होता तब तक सब सुख बेकार है। मानसिक सुख श्रेष्ठ भावों से तथा सत् कर्मो के साथ परमपिता परमात्मा की सत्ता को स्वीकारने से ही प्राप्त होता है।

अभिषेक लट्टा - प्रभारी संपादक मो 9351821776

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