व्यंग्य लेख ….. बीस लाख करोड़ – गांव और गरीब के सपने

 व्यंग्य लेख ….. बीस लाख करोड़ – गांव और गरीब के सपने

रामस्वरूप रावतसरे
हरिया ने जब सुना कि वित्त मंत्री जी ने देश की कायाकल्प बदलने के लिए बीस लाख करोड़ का विशेष बजट रिलीज किया है तो उसे लगा इस बार उसकी सारी समस्याओं का निदान अपने आप ही हो जावेगा क्योंकि पहली बार इतनी बड़ी राशि गांव व गरीब के लिये दी जा रही है। हरिया इस राशि को ध्यान में रख कर, यह विचार करने लगा कि इस विशेष बजट के गांव में आ जाने से उसके गांव का स्वरूप क्या होगा और जब यह उफनती विकास की गंगा उसके घर के दरवाजे में प्रवेश करेगी तो वह भी गांव के लम्बरदार की तरह मूंछों पर ताव देने की स्थिति में आ जावेगा। घर की सारी समस्याऐं घर क्या गांव के बाहर खड़ी खिसियाती, मिमियाती नजर आएगी।
हरिया ने पलक झपकते ही अब तक पूर्ण नहीं हो पाई उन सारी अपेक्षाओं, आशाओं को पूरा करने के साथ साथ उन्हें घर में किस प्रकार सजाया जावेगा, इसका पूरा खाका तैयार कर लिया। हरिया अपनी खुशी का इजहार करने के लिये अर्धांगिनी को आवाज दे ही रहा था कि तभी चितवन का आगमन हुआ। चितवन आते ही बोला ‘चचा आज सालों बाद पहली बार आपके चेहरे पर खुशी देख रहा हूं! ऐसा क्या मिल गयाÓ? हरिया ने अपना मुखारबिन्द खोलते हुए चितवन को बताया ‘देश के वित्त मंत्री जी ने पहली बार गांव व गरीब को समर्पित विशेष बजट रिलीज किया हैÓ चितवन तमक कर बोला ‘तो क्या हुआÓ। हरिया ने कहा, ‘इस बजट से हमारे सारे दुख दलिद्दर हवा हो जायेगें समझेÓ। चितवन बोला, ‘अब समझा चचा कि आपके अलसाये चेहरे पर ख्याली पुलाव क्यों और किस बात को लेकर पक रहे हैंÓ।
‘ऐसा बजट तो भारत के आजाद होने के बाद से ही आता रहा है। चचा इस बीस लाख करोड़ के विशेष बजट में वित्त मंत्री ने तुम जैसों को कितना ध्यान में रखा है, कहा नहीं जा सकता पर अपनी पार्टी के भविष्य को अवश्य ध्यान में रखते हुए उसी के अनुसार जनता की सुविधाओं का पिटारा खोला गया लगता है। ऐसे में अखबार इनके बजटीय उद्गारों से भर जाते हंै। समीक्षक शब्दों व आंकड़ों के माध्यम से अपनी भड़ास निकाल लेते हंै। सत्ता पक्ष बतीसी दिखाता बजट को बहुत अच्छा बताता है, तो विपक्ष भौहें चढ़ाता हुआ, बजट को अब तक का निकृष्ट बताता है। ये दोनों ही जनता द्वारा चुने हुऐ होते हैं। उस जनता द्वारा जिसके लिऐ इस प्रकार का बजट पेश किया जाता है।Ó
देश के आजाद होने के बाद से यही सिलसिला चला आ रहा है। हर साल अरबों खरबों का बजट पेश करने तथा जन सुविधार्थ घोषणाएं करने के उपरान्त भी चचा, देश की जनसंख्या का 80 प्रतिशत भाग वहीं खड़ा है जहां आजादी के समय खड़ा था। फिर यह बजट जो हर साल पेश किया जाता है, इसमें रखे गये खर्च के प्रावधान किसकी सुख सुविधा में खर्च कर दिये जाते हैं, या हो जाते हंै। जो घोषणाएं बजट में की जाती हैं वे पूरी क्यों नहीं होती? इसके पीछे कारण क्या रहता है? चचा इस ओर शायद ही बजट पेश करते समय किसी मंत्री संतरी का ध्यान जाता होगाÓ।
‘चचा तुम्हें पता होगा जब किसी भी प्राईवेट संस्थान या उपक्रम का सालाना लेखा जोखा तैयार किया जाता है। उसमें उपलब्धियों के साथ-साथ खामियों पर भी रिपोर्ट होती है और उसे हर सम्भव पूर्ण किया जाकर लाभ की स्थिति में लाया जाता है। यही कारण रहता है कि लगभग प्राईवेट संस्थान उतरोत्तर उन्नति की और बढ़ते जाते हैं पर केन्द्र या राज्य का बजट जो आम जनता कि सुविधा के लिये महिनों की मेहनत के बाद पेश होता है, वह निजी उपक्रमों की तरह उपलब्धियों को क्यों नहीं पूरा कर पाता? और तो और इस बात पर शायद ही सोचा जाता होगा कि जो लक्ष्य पूर्व बजट वर्ष में निर्धारित किये थे, वे पूर्ण क्यों नहीं हुए और उसके लिये कौन जिम्मेदार है? साल खत्म होता है, नये बजटीय आंकड़ों का खेल शुरू हो जाता है। विद्यालय, महाविद्यालय, चिकित्सालय, चिकित्सकीय सुविधाएं, सड़कें, पानी, बिजली, आवागमन के साधन, संचार के साधन और भी ना जाने क्या क्या की संख्या बताई जाती है। पर नया बजट पेश करते समय यह नहीं बताया जाता कि, इनमें से गत वर्ष में कितना कार्य पूर्ण हो गया है और कितना शेष रह गया है। शेष रहे काम के पूर्ण नहीं होने के पीछे क्या कारण रहे हैं।Ó
‘चचा तुम्हें मालूम होना चाहिये सरकार एवं सरकारी उपक्रमों में जो बजट पेश होता है उसमें राशि होती ही नहीं है, आने की संभावना को ध्यान में रखकर बजट तैयार किया जाता है। जब हमारे पास राशि है ही नहीं और हम संभावना के आधार पर घोषणाएं कर रहे हंै। वे कितनी पूर्ण होंगीं यह इसी बात से अन्दाजा लगाया जा सकता है।
खैर, यह बजट बनाने वालों का कमाल है कि, वे खजाने में राशि का अभाव होते हुये भी उसे इस बाजीगिरी से पेश करते हंै कि साल भर तक तुम जैसे तो क्या जनता के चुने हुये नुमाइन्दे तक भरमाये रहते हैं। फिर अगले साल का बजट आ जाता है। यों करते करते पांच साल का समय पूर्ण हो जाता है और फिर लच्छेदार भाषणों के जरिये जनता को बताया जाता है कि हमने उसके लिये इतने हजार किलोमीटर सड़कें बनाई, विद्यालय और चिकित्सालय खोले पीने के पानी की व्यवस्था की आदि आदि। ये सड़कें कहां बनीं, विद्याालय और चिकित्सालय कहां खुले, पानी कहां तक पहुंचा और वे आज किस स्थिति में है। इसका लेखा जोखा उनके पास नहीं होता। हो भी कैसे? यदि धरातल पर कुछ किया होता तो आज 70 साल के बाद भी हम जैसे करोड़ों लोग भिखमंगों की श्रेणी में नही आतेÓ।
‘चचा हर वर्ष गांव व गरीब का उत्थान करने के लिये बजट राशि का प्रावधान होता है लेकिन आज तक गांव व गरीब का उत्थान नहीं हो पाया है। यह अलग बात है कि गांव व गरीब के नाम पर बजट पास करने वालों के वारे न्यारे होते आ रहे हैं। सज्जन लोग कहते हैं कि, गांव व गरीब की दुहाई देकर चुनाव जीतने वालों की चले तो यथा-स्थिति कायम रहनी चाहिये ताकि उनका संसद व विधानसभाओं में पहुंचना सुनिश्चित रहे। जो लोग इन नेताओं को चुनाव जिताने के लिये अपने संसाधन व धन उपलब्ध कराते हंै, वे यह चाहते है कि गरीब व गांव रहना ही नहीं चाहिये। जहां ये बसे हैं, भूखे प्यासे रहकर अपना जीवन काट रहे हैं, यह देश के लिये अभिशाप है, इनके बने रहने से विदेशों में भारत की छवि गरीब व भिखमंगे की बनी हुई है। इन्हें हटा कर आलीशान इमारतें व कारखाने लगाये जाएं ताकि भारत की छवि सुधरने के साथ साथ करोड़ों की आमदनी हो और गरीब का नामों निशान नहीं रहे।Ó
‘चचा हमारे नेता गरीबी को एक अभिशाप मानते आ रहे हंै, आधी से ज्यादा शताब्दी निकल जाने के बाद भी हमारे यहां से गरीबी नहीं गई। गांव और उसमें रहने वाले लोग खत्म होते गये, भूख से, बीमारी से, बेरोजगारी से और यह क्रम सतत् जारी है। सरकारें आती हैं, बजट पेश करते समय गांव व गरीबों के लिये घडिय़ाली आंसू बहाती है। बस बजट का पास होना और गांव व गरीबों का फेल होना हर वर्ष जारी रहता है। बजट में गरीब के नाम पर रखा गया निवाला उससे भी ज्यादा भूखे लोग खाते रहे हंै जो महंगी कारों में घूमते हैं और अट्टालिकाओं में रहते हंै।Ó
यदि गांव व गरीब के लिये बजट तय किया जाता है तो उसके सम्पूर्ण उपयोग का हिसाब भी आना चाहिये। पर यह तब हो जब गांव व गरीब का प्रतिनिधित्व करने वाला सच्चा व्यक्ति वहां पर मौजूद हो। हर बजट में गांव व गरीब के उत्थान के लिये योजनाएं बनाई जाती हंै। पर उनका रूख गांव व गरीब की ओर नहीं होकर शहरों की ओर या प्रभावशाली लोगों की ओर हो जाता है। या ये योजनाएं कागजों में ही पूर्ण होकर रह जाती हैं। चचा तुम्हारे दुख: दरिद्दर तभी दूर हो सकते हैं जब बजट बनाने वाले गांव के अर्थशास्त्र को समझ कर उसे फलने – फूलने दें और उसमें सरकारी सहायता की खाद व पानी को समुचित रूप से लगाने दें लेकिन ये आज तक पाश्चात्य अर्थशास्त्र व गणित के आधार पर गांव व गरीब का दुख दूर करने के प्रयत्न करते रहे हैं। जिन्होंने गांव व गरीब को उन्नत करने के स्थान पर अवनत किया है। हमारी धरती जो कभी सोना उगलती थी, विदेशी सोच के चलते बंजर पड़ी है, ग्रामीण व किसान आत्महत्या को मजबूर हो रहे हैं। चचा शुरू से ही यदि गांव आधारित विकास को बल दिया जाकर बजट बनाये जाते तो आज हम विकास में श्रेष्ठता के शिखर पर होते और नीतियां आयात नहीं निर्यात करते। इसलिये चचा वित्त मत्री द्वारा दिखाये गये स्वप्नों से निकल कर बाहर आओ, ठीक रहेगा।Ó
‘वित मंत्री द्वारा घोषित बीस लाख करोड़ का निर्धारण भी आदमी की हैसियत के अनुसार हो चुका है। बीस सामान्य आदमी के लिए, लाख सरकारी पट्टेदारों के लिए और करोड़ उनके लिए जो सफेद कपड़ों में लिपटे जनता के रहनुमा बन कर इस सरकारी खजाने को गांवों की गलियों में लाने का प्रयास कर रहे हंै। वैसे भी चचा यह बीस लाख करोड़ तुम्हारे तक आते आते उस सरकारी नल की तरह हो जायेगा जिसमें पानी कम और हवा ज्यादा आती है। इसलिए लाख करोड़ के चक्कर में ना रह कर अपनी हैसियत के अनुसार ही सपने देखो और उसी के अनुसार पांव पसारने का चिन्तन करो। इसी में हम जैसों की भलाई हैÓ।

अभिषेक लट्टा - प्रभारी संपादक मो 9351821776

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