बेबस मजदूर – हादसों का इंतजार करता प्रशासन

 बेबस मजदूर – हादसों का इंतजार करता प्रशासन

रामस्वरूप रावतसरे, शाहपुरा (जयपुर)
मो. 9828532633

कहते हैं कि जो बात शब्दों में नहीं कही जा सकती है वह तस्वीरें कह देती हैं। देश में प्रवासी मजदूरों के पलायन की जो तस्वीरें सामने आ रही हैं वे बहुत कुछ कह रही हैं। तस्वीरें बता रही हैं कि ये सिर्फ बेबस मजदूरों का पलायन नहीं है बल्कि प्रशासनिक सिस्टम पर से विश्वास के ‘पलायनÓ की शुरुआत है।
इन तस्वीरों को देखकर लगता है, क्या लोगों का शासन, प्रशासन, शहर और काम देने वाली संस्थाओं पर भरोसा नहीं बचा है? शायद इसलिए वह अपने गांव घर की ओर भागे जा रहे हैं। आज गरीब मजदूरों को अपने गांव और समाज की व्यवस्था पर ज्यादा भरोसा लगने लगा है। एक साथ अपने घरों की ओर पलायन करते मजदूर सिर्फ एक तस्वीर नहीं बल्कि एक ग्रामीण भारत की आत्मा है जो शहरों में रहकर बड़ी अट्टालिकाओं, मजबूत पुलों, लम्बी चौड़ी सड़कों के निर्माण को गति दे रही थी।
यह ग्रामीण आत्मा शहरी वातावरण को स्वच्छ रखने के लिए खुद दमघोंटु वातावरण में रहकर वहां के खुले नालों को पाट रही थी। खुद खुले में रहकर किसी अंजान की छत का निर्माण कर रही थी। विभिन्न प्रकार के उद्योग धन्धों को गति दे रही थी लेकिन इस कोरोना काल में उसको सहारा देने वाला शायद कोई हाथ सामने नहीं था। जब उसका मौजूदा शासन-व्यवस्था पर भरोसा नहीं बचा, तो वह भूख प्यास और किसी भी प्रकार की परेशानी को दरकिनार करते हुए, तपती सड़क पर सैकड़ों किलोमीटर दूर अपने मूल स्थान की ओर चल पड़ी।
केंद्र और राज्य सरकारों के वरिष्ठ एवं जिम्मेदार लोगों ने प्रवासी मजदूरों के लिए विभिन्न प्रकार की गाईड लाईनें और लम्बे चौड़े बयान जारी किये है। यह भी कहा बताया कि जो जहां है उसकी वहीं समुचित व्यवस्था की जा रही है। फिर भी देश के विभिन्न राजमार्गों पर हजारों मजदूर/मजबूर सैकड़ों किलामीटर की पैदल यात्रा पर अपने घरों की ओर निकल पड़े।
इन्होंने प्रशासनिक नाकामी और अपनी जीवटता के बल पर दो से चार हजार किलोमीटर लम्बे राजमार्गो को अपने पैरों तले रौंद डाला है। ऐसे में संवेदनशील और गरीब, मजबूर का हितेषी प्रशासन कहां था। वे सफेदपोश नेता कहीं भी नजर नहीं आ रहे, जो चुनावों के समय इनके लिये सुविधाओं का पिटारा लिए गली गली हांडते हैं। वे संस्थाएं जो गरीब गुरबों के नाम पर अपनी रोजी रोटी चलाती है कहीं भी दिखाई नहीं दे रही।
भारत में कितने लोगों के पास घर हैं? कितनों के सिर पर न टपकने वाली छतें हैं? करोड़ों लोग अपने परिवारों से सैकड़ों मील दूर रहते हैं। कैसी विडम्बना है कि इन मजदूर/मजबूर लोगों के हुजूम शुरू होने के करीब 50 दिन बाद भी कोई भी बड़ा नाम इन लाखों लोगों को सुविधा देने तो दूर सहानुभूति जताने तक नहीं आया, मानो इन लोगों का वजूद ही नहीं है। ये लोग अपनी राज्य सरकारों के लिए मुसीबत हैं। राजमार्गो पर लाखों मजदूरों का पलायन जारी है। बेबस मजदूरों/मजबूरों को ये भी नहीं पता कि वह अपने घर की चौखट को छू भी पाएगा या नहीं लेकिन वह अपने पुश्तैनी घर की ओर चल पड़ा है।
सरकार अपने आंकड़ों में बता रही है कि प्रवासी मजदूरों का आंकड़ा 8 करोड़ के लगभग है। जिस तरह कोरोना के कभी खत्म नहीं होने की बात कही जा रही है ठीक वैसे ही पलायन का ये दंश भी कभी खत्म होने वाला नहीं लगता है। इस कोरोना काल में 67 फीसदी लोगों की नौकरी चली गई है। शहरी क्षेत्र में 10 में से 8 श्रमिकों और ग्रामीण क्षेत्र में 10 में से 6 मजदूर बेरोजगार हो गए हैं। इतना ही नहीं, सबसे दुखद पहलू यह है कि देश की 74 फीसदी आबादी भर पेट भोजन नहीं कर पा रही है यानि 4 की जगह दो ही रोटी पर गुजर करने को मजबूर है।
प्रवासी मजदूर पलायन की समस्या का एक और पहलू भी है। आने वाले दिनों में जब आर्थिक गतिविधियां शुरू होंगी उस समय काम करने के लिए श्रमिक उपलब्ध नहीं होंगे। श्रमिकों की अनुपलब्धता कितनी बड़ी समस्या होगी, इसका अंदाजा आज नहीं लगाया जा सकता है। वक्त आने पर पता चलेगा, इस समस्या की गंभीरता वही समझ सकते हैं। जिन्हें आर्थिक गतिविधियों के संचालन के लिए श्रमिकों की आवश्यकता होती है। श्रमिकों के अभाव में लॉक डाउन खुलने का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा।
जब किसी कारोबारी को व्यावसायिक गतिविधियों के संचालन के लिए श्रमिक की जरूरत हो और उसे श्रमिक न मिले तो उसकी क्या स्थिति होगी। ऐसी स्थिति में क्या वह उन पुराने श्रमिकों को वापस आने पर उन्हें रोजगार देगा? यह प्रश्न भी खड़ा है कि हजार परेशानी भोगकर अपने गांव गया मजदूर सहज में ही वापस अपने कर्म स्थल पर आ जायेगा। कहना मुश्किल है।
इस सम्बन्ध में जानकार लोगों का कहना है कि श्रमिकों के पलायन में राजनेताओं की भी अहम् भूमिका रही है। स्थानीय स्तरों पर विपक्षी दलों के राजनेताओं ने भी श्रमिकों को पलायन के लिए प्रेरित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है ताकि प्रशासनिक व्यवस्था में खामियां बता कर जनता को सत्ता पक्ष के विरूद्ध खड़ा किया जा सके। प्रवासी मजदूर/ मजबूर व्यक्ति कितने राज्यों की सीमा को लांघकर आगे बढ़ रहा है लेकिन वहां का सम्बन्धित प्रशासन मौन है।
अब जबकि कई मजदूरों की जान चली गई है। कुछ सैकड़ों किलोमीटर की दुखद यात्रा कर अपने घर पहुंच गये तब, सरकारों ने अपनी संवेदना से ओतप्रोत जिम्मेदारियों के दरवाजे खोले हैं। क्या होता प्रारम्भ से ही प्रवासी मजदूरों की समुचित जांचकर उन्हें अपने गन्तव्य तक भेजने की व्यवस्था कर दी गई होती तो आज यह समस्या विकराल रूप धारण नहीं करती लेकिन हमारा शासन तन्त्र हादसों का इंतजार करता रहता है। उसके बाद उसकी नींद खुलती है। प्रवासी मजदूरों के साथ भी यही हो रहा है।

अभिषेक लट्टा - प्रभारी संपादक मो 9351821776

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