सामाजिक सरोकार की कमी से बढ़ रही है बाल मजदूरी की कुप्रथा

 सामाजिक सरोकार की कमी से बढ़ रही है बाल मजदूरी की कुप्रथा

कानून से नहीं, जागरूकता से अंकुश लगेगा


नृपेन्द्र सिंह
हम लोग बहुत समय से ‘बालश्रमÓ के विरुद्ध चलाये जा रहे अभियान का हिस्सा बनकर लड़ाई लड़ रहे हैं, पहले मैंने जब वर्ष 1995 से बचपन बचाओ आंदोलन के प्रणेता एवं अंतराष्ट्रीय बाल अधिकार कार्यकर्ता कैलाश जी सत्यार्थी के साथ कार्य करना प्रारम्भ किया था तब मुझे लग रहा था कि ‘बालश्रमÓ जैसी गम्भीर समस्या से सिर्फ हमारा देश ही जूझ रहा है लेकिन जब बचपन बचाओ आंदोलन के माध्यम से मुझे भारत के साथ साथ अन्य देशों की स्थिति जानने का अवसर मिला तो मुझे महसूस हुआ कि बालश्रम की समस्या तो वैश्विक समस्या है और इस गम्भीर समस्या ने तो पूरी दुनिया में ही पैर जमा लिए हैं।
कुछ लोग मुझे कहते हैं कि, बच्चे काम नहीं करेंगे तो भूखे मर जायेंगे लेकिन उनके पास मेरे सवालों का जवाव नहीं होता है कि जब तक बच्चों से काम कराया जावेगा तब तक वयस्कों के रोजगार पर डाका पड़ता रहेगा। वर्तमान दौर में बाजार के वैश्वीकरण तथा बड़े लोगों के धन एकत्र करने की लोलुपता के कारण बाल मजदूरों की संख्या में तेजी से बढ़ोत्तरी हो रही है। खतरनाक और गैर खतरनाक उद्योगों में जहा लगभग भारत में 6 करोड़ बच्चे तिल तिल कर मजदूरी करने को विवश हंै तो वहीं दूसरी ओर घरों की चार दीवारों के बीच भी नाबालिग लड़कों एवं लड़कियों से बड़ी संख्या में मजदूरी कराई जा रही है।
सामाजिक सरोकार की कमी के कारण बाल मजदूरों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है और हम सब मूक दर्शक बन कर तमाशा देख रहे हैं।
यह माना जाता है कि भारत में 14 साल के बच्चों की आबादी पूरी अमेरिकी आबादी से भी ज्यादा है। भारत में कुल श्रम शक्ति का लगभग 3.6 फीसदी हिस्सा 14 साल से कम उम्र के बच्चों का है। हमारे देश में हर दस बच्चों में से 9 काम करते हैं। ये बच्चे लगभग 85 फीसदी पारंपरिक कृषि गतिविधियों में कार्यरत हैं, जबकि 9 फीसदी से कम उत्पादन, सेवा और मरम्मती कार्यों में लगे हैं। सिर्फ 0.8 फीसदी कारखानों में काम करते हैं। आमतौर पर बाल मजदूरी अविकसित देशों में व्याप्त विविध समस्याओं का नतीजा है।
भारत सरकार दूसरे देशों के सहयोग से बाल मजदूरी खत्म करने की दिशा में तेजी से प्रयासरत है। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए सरकार ने राष्ट्रीय बाल श्रम परियोजना (एनसीएलपी) जैसे महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं। आज यह कहने की जरूरत नहीं है कि इस परियोजना ने इस मामले में काफी अहम कार्य किए हैं।
इस परियोजना के तहत हजारों बच्चों को सुरक्षित बचाया गया है। साथ ही इस परियोजना के तहत चलाए जा रहे विशेष स्कूलों में उनका पुनर्वास भी किया गया है। इन स्कूलों के पाठ्यक्रम भी विशिष्ट होते हैं, ताकि आगे चलकर इन बच्चों को मुख्यधारा के विद्यालयों में प्रवेश लेने में किसी तरह की परेशानी न हो। ये बच्चे इन विशेष विद्यालयों में न सिर्फ बुनियादी शिक्षा हासिल करते हैं, बल्कि उनकी रुचि के मुताबिक व्यवसायिक प्रशिक्षण भी दिया जाता है। राष्ट्रीय बाल श्रम परियोजना के तहत इन बच्चों के लिए नियमित रूप से खानपान और चिकित्सकीय सहायता की व्यवस्था है। साथ ही इन्हें एक सौ रुपये मासिक वजीफा दिया जाता है।
गैर सरकारी संगठनों या स्थानीय निकायों द्वारा चलाए जा रहे ऐसे स्कूल इस परियोजना के अंतर्गत अपना काम अगर निष्ठा एवं ईमानदारी से करें तो हजारों बच्चे मुख्य धारा में शामिल हो सकते हैं लेकिन अभी भी देश में करोड़ों बच्चे बाल मजदूर की जिंदगी जीने को मजबूर हैं। समाज की बेहतरी के लिए इस बीमारी को जड़ से उखाडऩा बहुत जरूरी है। एनसीएलपी जैसी परियोजनाओं के सामने कई तरह की समस्याएं हैं। यदि हम सभी इन समस्यायों का मूल समाधान चाहते हैं तो हमें इन पर गहनता से विचार करने की जरूरत है। इस संदर्भ में सबसे पहली जरूरत है 14 साल से कम उम्र के बाल मजदूरों की पहचान करना।
आखिर वे कौन से मापदंड हैं, जिनसे हम 14 साल तक के बाल मजदूरों की पहचान करते हैं और जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी मान्य हों? क्या हमारा तात्पर्य यह होता है कि जब बच्चा 14 साल का हो जाए तो उसकी देखभाल की जिम्मेदारी राज्य की हो जाती है? हम जानते हैं कि गरीबी में अपना गुजर-बसर कर रहे बच्चों को परवरिश की जरूरत है।
कोई बच्चा जब 14 साल का हो जाता है और ऐसे में सरकार अपना सहयोग बंद कर दे तो मुमकिन है कि वह एक बार फिर बाल मजदूरी के दलदल में फंस जाए। यदि सरकार ऐसा करती है तो यह समस्या बनी रह सकती है और बच्चे इस दलदल भरी जिंदगी से कभी बाहर ही नहीं निकल पाएंगे। कुछ लोगों का मानना है और उन्होंने यह प्रस्ताव भी रखा है कि बाल मजदूरों की पहचान की न्यूनतम आयु बढ़ाकर 18 साल कर देनी चाहिए। साथ ही सभी सरकारी सहायताओं मसलन मासिक वजीफा, चिकित्सा सुविधा और खानपान का सहयोग तब तक जारी रखना चाहिए, जब तक कि बच्चा 18 साल का न हो जाए।
कई सरकारें बाल मजदूरों की सही संख्या बताने से बचती हैं। ऐसे में वे जब विशेष स्कूल खोलने की सिफारिश करती हैं तो उनकी संख्या कम होती है, ताकि उनके द्वारा चलाए जा रहे विकास कार्यों और कार्यकलापों की पोल न खुल जाए। यह एक बेहद महत्वपूर्ण पहलू है और आज जरूरत है कि इन सभी मसलों पर गहनता से विचार किया जाए।
मौजूदा नियमों के मुताबिक, जब बच्चा मुख्य धारा के स्कूलों में दाखिला ले लेता है तो ऐसा माना जाता है कि मासिक सहायता बंद कर देनी चाहिए जबकि बच्चे या उसके माता-पिता नहीं चाहते हैं कि वित्तीय सहायता बंद हो। ऐसे में उनका अकादमिक प्रदर्शन नकारात्मक रूप से प्रभावित होता है। यही वजह है कि हर कोई सोचता है कि जब बच्चा मुख्य धारा के स्कूल में प्रवेश कर जाए तो उसके बाद भी उसे सहायता मिलती रहनी चाहिए। आखिरकार अतिरिक्त पैसे के लिए ही तो माता-पिता अपने बच्चों से मजदूरी करवाते हैं। इसीलिए किसी भी तरह आर्थिक सहायता जारी रहनी चाहिए। यह तब तक मिलनी चाहिए, जब तक कि वह बच्चा पूर्ण रूप से मुख्य धारा में शामिल होने के काबिल न हो जाए।
हालांकि पुनर्वास पैकेज की पूरी व्यवस्था की गई है, फिर भी बच्चे के माता-पिता सरकारी सुविधाओं के हकदार नहीं माने गए हैं। ऐसे में हर किसी को यह लगता है कि इस संदर्भ में एक सामान्य नियम होना चाहिए, ताकि ऐसे लोगों के लिए एक विशेष वर्ग निर्धारित हो सके। जैसे एससी, एसटी, ओबीसी, सैनिकों की विधवाओं, पूर्व सैनिक और अपाहिज लोगों के लिए एक अलग वर्ग निर्धारित किया जा चुका है।
बाल श्रमिकों की पहचान के संबंध में एक दूसरी समस्या सामने आई है, वह है उम्र का निर्धारण। इस परियोजना ने चाहे जो कुछ भी किया है लेकिन कम से कम यह बाल मजदूरी के संदर्भ में पर्याप्त जागरूकता लाई है। अब यह हर कोई जानने लगा है कि 14 साल के बच्चे से काम कराना एक अपराध है। इसीलिए आज जब कोई बाल मजदूरी की रोकथाम को लागू करना चाहता है तो एक बच्चा खुद अपनी समस्याओं को हमें बताता है।
उसके मुताबिक, काम करने की न्यूनतम आयु 14 साल से कम नहीं होनी चाहिए लेकिन इसकी जांच-पड़ताल का कोई उपाय नहीं है। ऐसे में हर कोई ऐसे बच्चों के पुनर्वास के लिए खुद को असहाय महसूस करता है। ये बच्चे न तो स्कूल जाते हैं और न ही इनके जन्म का कोई प्रमाणिक रिकॉर्ड होता है। इसीलिए ये कहीं से भी अपने जन्म प्रमाणपत्र का इंतजाम कर लेते हैं और लोगों को उसे मानने के अलावा कोई विकल्प भी नहीं होता।
लोगों को यह भी लगता है कि माता-पिता द्वारा बच्चों को काम करने की छूट देने या उनके कारखानों में काम करने पर प्रतिबंध लगना चाहिए क्योंकि माता-पिता द्वारा काम पर लगाए जाने वाले ऐसे बच्चों की तादाद भी काफी अधिक है। इन बच्चों को छोटी उम्र में ही काम पर लगा दिया जाता है और ऐसे लोगों की वजह से ही इन बच्चों पर नकारात्मक असर पड़ता है। एक बार फिर कहना होगा कि इन विशिष्ट स्कूलों में दिए जाने वाले व्यवसायिक प्रशिक्षणों में भी कुछ खामियां हैं। हालांकि मौजूदा नियमों के मुताबिक व्यवसायिक प्रशिक्षण का प्रावधान तो है लेकिन इसके लिए धन का अलग से आवंटन नहीं होता है, जिससे इस तरह के कार्यक्रमों को सफलतापूर्वक चलाने में कई मुश्किलें आती हैं।
बाल मजदूरी खत्म करने और व्यवसायिक प्रशिक्षण का लक्ष्य हासिल करने के लिए सबसे पहले हमें उपर्युक्त पहलुओं को समझना बेहद जरूरी है। व्यवसायिक प्रशिक्षण के दौरान जिन उत्पादों का निर्माण होता है, उनका विपणन यदि ठीक ढंग से हो तो उसकी लागत पर आने वाले खर्च को हासिल किया जा सकता है लेकिन यह सब परियोजना विशेष, उसके विस्तार और उत्पाद की गुणवत्ता पर निर्भर करता है।
साथ ही यह परियोजना का कार्यान्वयन करने वाले व्यक्ति पर भी निर्भर करता है कि वह इन सबका प्रचार-प्रसार ठीक ढंग से कर पा रहा है या नहीं। यह देखने में आया है कि बाल मजदूरी रोकने संबंधी नियम बन चुके हैं लेकिन अभी भी इसे जमीनी स्तर पर लागू नहीं किया गया है। बाल मजदूरी को बढ़ावा देने वाले खुद समाज के गरीब तबके से आते हैं, इसलिए ऐसे लोगों को हिरासत में लेने या दंडित करने के प्रति भी हमारी कोई रुचि नहीं दिखती।
जहां लोग बाल मजदूरी से परिचित होते हैं, वे इस अपराध से बच निकलने में सफल हो जाते हैं। अत: हमें यहां सुनिश्चित करने की जरूरत है कि बाल श्रम अधिनियम (निषेध एवं विनियमन) को सही मायनों में लागू किया जा रहा है या नहीं। यह भी देखा जा रहा है कि जिन बाल मजदूरों को मुक्त कराया जाता है, उनका पुनर्वास जल्द नहीं हो पाता, नतीजतन वे फिर इस दलदल में फंस जाते हैं। ऐसे में हमें इसके खिलाफ कड़े कदम उठाने की आवश्यकता है। साथ ही 20 हजार रुपये की राशि एक बाल मजदूर के पुनर्वास के लिए बेहद ही मामूली राशि है, जिसे बढ़ाए जाने की भी जरूरत है।
जमीनी स्तर पर पुनर्वास को सही ढंग से लागू करने के लिए वित्तीय सहायता के साथ-साथ एक बेहतर पुनर्वास खाका भी बनाया जाना चाहिए। कई सरकारें बाल मजदूरों की सही संख्या बताने से बचती हैं। ऐसे में वे जब विशेष स्कूल खोलने की सिफारिश करती हैं तो उनकी संख्या कम होती है ताकि उनके द्वारा चलाए जा रहे विकास कार्यों और कार्यकलापों की पोल न खुल जाए।
यह एक बेहद महत्वपूर्ण पहलू है और आज जरूरत है कि इन सभी मसलों पर गहनता से विचार किया जाए। यदि सरकार सही तस्वीर छुपाने के लिए कम संख्या में ऐसे स्कूलों की सिफारिश करती है तो यह नियमों को लागू करने एवं बाल श्रमिकों को समाज की मुख्य धारा में जोडऩे की दिशा में एक गंभीर समस्या और बाधा है।
जब तक पर्याप्त संख्या में संसाधन उपलब्ध नहीं कराए जाएंगे, ऐसी समस्याओं से निपटना मुश्किल ही होगा। यहां बाल श्रम से निपटने की दिशा में न सिर्फ नए सिरे से सोचने की आवश्यकता है बल्कि इसके लिए कार्यरत विभिन्न परियोजनाओं को वित्तीय सहायता आवंटित करने की भी जरूरत है। कुछ मामलों में बाल श्रमिकों की पहचान की जरूरत तो नहीं है लेकिन इन परियोजनाओं में कुछ बुनियादी संशोधन की आवश्यकता जरूर है। इस देश से बाल मजदूरी मिटाने के लिए अधिक समन्वित और सहयोगात्मक रवैया अपनाने की सख्त आवश्यकता है।
आप और हम यह कर इस संख्या को कम करने में अपना योगदान दे सकते है:

  • हम सब मिलकर बाल मजदूरी जैसे जघन्य अपराध के विरुद्ध लोंगों को जाग्रत करें।
  • अपने घरो, दफ्तरों,दुकानों में बच्चों से काम न करवायें एवं जहां बच्चों से काम कराया जाता हो उन संस्थानों, दुकानों व होटलों का बहिष्कार करें।
  • बालश्रम से बनाये गए उत्पादों का बहिष्कार करें।
  • अगर आपके आस पास कहीं भी किसी प्रकार का श्रम बच्चों से कराया जा रहा है तो उसकी शिकायत तत्काल पुलिस, श्रम विभाग, बाल कल्याण समिति या बाल अधिकार और मानवाधिकार आयोग को करें।
  • यह सब कार्य कर हम ‘स्टॉप चाइल्ड लेबरÓ अभियान में सहभागी बन कर बच्चों के भविष्य को सुरक्षित करने में सहभागी बन सकते हैं।
    (लेखक नृपेंद्र सिंह जाने-माने बाल अधिकार कार्यकर्ता हैं, जो विगत 20 वर्षों से राजस्थान में बाल अधिकार के लिए कार्य कर रहे हैं एवं वर्तमान में एक्शन एड एसोसिएशन राजस्थान से जुड़े हुए हैं)
नृपेन्द्र सिंह

अभिषेक लट्टा - प्रभारी संपादक मो 9351821776

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