डाक विभाग कॉलोनियों में जाकर खोल रहा है सुकन्या समृद्धि खाते
हिन्दुत्व के उजले पक्ष पर जातिवाद की कालिख
कैलाश चन्द ‘कैलाशÓ
सामूहिक भोज का लाभ उठाते समय क्या वहां आप कभी भोजन या नाश्ता बनाने वाले या फिर भोजन परोसने वाले से यह पूछते हैं कि तुम्हारी जाति क्या है? आपको पतासी चाट, आइसक्रीम और पान की गिलौरी थमाने वाला कौनसी जाति का है? क्या आप जानते हैं कि आप जिनका नाश्ते में बहुत चाव से आनंद लेते हैं उन बिस्कुट, पिज्जा, बर्गर और बेकरी जैसे खाद्य पदार्थों को बनाने में किनके हाथों का उपयोग होता है? क्या आप होटल में चाय- कॉफी पीने से पहले पूछते हैं कि इनको बनाने वालों की जाति क्या है? जो ठंडा पेय देश में और विदेश से बनकर आता है उसके बनाने वाले कौन थे? आदि आदि. तो फिर आप जिस सामूहिक भोज में या नाश्ते के समय अपने उस परिचित व्यक्ति को जिसे आप नीची जाति का समझते हैं उसको खाद्य सामग्री परोसते हुए देखकर आग- बबूला क्यों हो जाया करते हैं?
वास्तविकता पर पर्दा डालने वाले कुछ स्वयंप्रज्ञ मनीषियों के मुख से ऐसे प्रश्नों के जवाब में जो आदर्श वाक्य सुने जाते हैं उनका आशय कुछ इस तरह का होता है कि ‘नहींÓ आजकल ऐसा कुछ नहीं होता। यह सब कहने की बातें हैं। आजकल तो सब लोग बराबर हैं। किंतु प्रत्यक्ष- अप्रत्यक्ष, वे ही तथाकथित पवित्र प्राणी नाक- भौंह सिकोड़ते हुए पाये जाते हैं। उनको जमाने के बदलने का बहुत गहरा सदमा लगा हुआ पाया जाता है। इतना ही नहीं बल्कि अस्पृश्यता विहीन समाज की पैरवी करने वालों पर कुछ अग्रगण्य प्रतिभाशालियों द्वारा तो हिन्दुओं को बांटने के सुनियोजित षडय़ंत्र का आरोप भी लगा दिया जाता है।
भारत में आज भी अनेक ऐसे क्षेत्र हैं, विशेषकर ग्रामांचल, जहां नीची समझी जाने वाली जातियों के हाथ का भोजन- पानी तो क्या उनको समीप बैठ जाने पर भी लोग उनसे नफरत का इजहार अवश्य करते हैं। ऐसे बहुत से क्षेत्र हैं जहां नौकरी या मजदूरी करने के लिए दूर से आये हुए नीची समझी जाने वाली जातियों के लोगों को कमरा किराये पर दिया जाना अपनी इज्जत घटाने के बराबर समझा जाता है। बहुत दूर की बात छोडिय़े हमने अपने स्वयं के गांव में ऐसा होते हुए अनेक बार देखा है। ठीक है आप उनके घर पर जाकर उनका खाना नहीं खाना चाहते तो मत खाइये, पानी नहीं पीना चाहते तो मत पीजिए किंतु सामूहिक कार्यों में या सामूहिक भोज के लिए उनसे चंदे की उगाही करके लाते हैं तो फिर आप उस सामूहिक भोज में उनको भोजन परोसने से मना कैसे कर सकते हैं?
चलो आप उनके हाथ का भोजन ग्रहण नहीं करते और पानी भी नहीं पीते हैं तो मर्जी आपकी, मत पीजिए लेकिन फिर आपको उनके ऊपर अपनी मर्जी थोपने का अधिकार ही कहां रह जाता है? आपको उनके लिए फिर यह नारा देने का अधिकार कौन देता है जिसका आप चीख- चीखकर उद्घोष करते हैं कि- ‘गर्व करो हम हिंदू हैं।Ó हिंदू संस्कृति की यही एक सबसे बड़ी कमजोरी है कि यह एक अति प्राचीन संस्कृति होते हुए भी अपने अस्पृश्यतावादी क्षुद्र दर्शन की बदौलत विश्व के भू- पटल पर एक सीमित क्षेत्र में रहते हुए भी अपने संख्यावादी अस्तिव से जूझ रही है। हमेशा इस पर धर्म परिवर्तन का संकट मंडराया रहता है। जबकि हिंदू संस्कृति के हजारों साल पश्चात् अस्तिव में आयी हुयीं संस्कृतियां रीति- नीतियों के विवादित होने के बावज़ूद आज विश्व के अधिकांश भू- क्षेत्रों में फल-फूल रही हैं।
विडम्बना यह है कि भारत राष्ट्र के महा मनीषियों के ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:Ó, ‘आत्मवत् सर्व भूतेषुÓ या ‘वसुधैव कुटुम्बकमÓ जैसे आदर्शवादी नारों का सत्व अस्पृश्यता की परिधि के समीप आते ही जाने क्यों अपना दम खोने लगता है? नीची समझी जाने वाली भारतीय जातियों का असली क्लेश यह नहीं है कि यहां संसाधनों की असमानता है और यह भी अगर है तो इसका पायदान दूसरा है। असली क्लेश यह है कि संघर्ष के पलों में उन्हें आगे रखा जाता है और उत्कर्ष की वेला में उन्हें पीछे धकेल दिया जाता है।
इससे भी अधिक त्रासद समय उनकी चेतना के संसार में तब आता है जब विश्व की अन्य संस्कृतियों की तुलना में संख्या बल के प्रदर्शन हेतु छद्म गौरव की अनुभूति करवाकर (गर्व करो हम हिंदू हैं) पुन: उन्हें हीनता और अस्पृश्यता के नर्क में धकेल दिया जाता है। अब आप ही बताइये कि पवित्रतावादियों की दुत्कारों से आहत हुए ये लोग राष्ट्र तथा संस्कृति की आराधना के सफर में कितनी दूरी तक आपका साथ निभा पायेंगे। राजतंत्र का काल अलग था कि तब अशिक्षा और अनाचार के हंटर से ये सब किसी की मनोवांछित दिशा में हांके या धकियाये जाते रहे थे लेकिन अब तो लोकतंत्र का उदयकाल है। प्रकाश आज नहीं तो कल इनके द्वार पर भी अवश्य आयेगा और आने भी लगा है। आप कब तक इन्हें अंधेरे के जाम पिलाकर यथास्थिति के कूप में अचेत ही डाले रखेंगे?
आप बिल्कुल नहीं जानते कि सैकड़ों साल तक डच, फ्रांसिसी, पुर्तगाली और अंग्रेज जो आपको गुलाम बनाकर देश में राज करके चले गये, उनकी जाति क्या थी? आप आज भी नहीं जानते कि रूस, अमेरिका, अफ्रीका, पुर्तगाल और चीन के राष्ट्रपति किन- किन जातियों से आते हैं या ब्रूनेई के सुल्तान और सऊदी अरब के शहजादे की जाति क्या है? क्या आपको अपने ही देश के जनरल मानेकशॉ या अब्दुल कलाम की जाति का मालूम है? नहीं ना? क्योंकि हिन्दुवाद के अतिरिक्त विश्व में कहीं भी जातिवाद का इतना त्रासद स्वरूप है ही नहीं। हां वहां नस्ल भेद की घिनौनी त्रासदी अवसर पाकर कोरोना से भी अधिक खतरनाक अवश्य हो जाती है किंतु उसका विरोध वहीं का प्रत्येक जागरूक नागरिक निर्भीकता पूर्वक किया करता है।
फिर हिंदुवाद में ही यह जातिवादी नाग, फन फैलाकर परंपरा की बांबी के बाहर सदियों से क्यों फुंफकार रहा है? यहां क्यों पूछा जाता है कि सरपंच! तेरी जाति क्या है? या संस्कृत पढ़ाने वाला व्याख्याता अमुक जाति से क्यों है? बहुत हुआ जो चालाक और शक्तिशाली लोग इनके इतिहास के चिन्ह मिटाते रहे, इनकी पहचान के दीपक बुझाते रहे तथा इनको हीनता का आसव पिलाते रहे। अब यदि तथाकथित राष्ट्रप्रेमी लोग अपनी संस्कृति एवं राष्ट्र समृद्धि के नाम पर स्वयं की समृद्धि के सपनों का जुआ इनके कंधों पर डालकर इन्हें चौपायों की भांति हांकना चाहते हैं तो यह उनकी सरासर भूल है।
अब समझदार लोगों द्वारा अपनी समझदारी का कपट रहित परिचय देने का सही- सही वक्त आ चुका है। अत: कूटनीति के साधन सम्पन्न भुजंगों एवं समय तथा परिस्थितियों के कालिया नागों द्वारा ‘दीन, हीन, दलित या अस्पृश्यÓ बनाये गये इन नीची समझी जाने वाली जातियों के लोगों को अपने पैरों में झुकाने के बजाय अपने सीने से लगाने का समय आ चुका है। इन्हें अब इस लोकतांत्रिक समाज में समानता का सुख भोगने के पर्याप्त अवसर उपलब्ध करवाने की शुभ वेला आ चुकी है। इसलिए हे राष्ट्र- प्रेमियों! यदि आप अपने राष्ट्र को प्रेम करना चाहते हैं तो पहले अपने स्वजनों से प्रेम करना सीखो। हे संस्कृति प्रेमियों! यदि आप अपनी संस्कृति से प्रेम करना चाहते हैं तो पहले अपनी सभ्यता को भी गले लगाना सीखो।