डाक विभाग कॉलोनियों में जाकर खोल रहा है सुकन्या समृद्धि खाते
श्रद्धा पत्थर को भी सजीव कर देती है
रामस्वरूप रावतसरे, शाहपुरा (जयपुर)
भावों में सर्वश्रेष्ठ भाव श्रद्धा को बताया गया है। श्रद्धा का होना आत्म -बलिदान के लिये, आत्मोथान के लिये नितान्त आवश्यक है। जहॉं श्रद्धा है वहां ज्ञान है, वहॉं भक्ति है। जहॉं श्रद्धा है वहॉं प्रेम है, वहॉ प्रकाश है, वहॉं शक्ति है। जहॉं श्रद्धा है वहीं शांति है, वहीं मुक्ति है। जहॉं श्रद्धा है वहीं जीवन है, ऐसा जीवन जो सत्य, शिव एवं सुन्दर से ओत प्रोत है। श्रद्धा ही श्रेष्ठ जीवन का सुदृढ़ आधार है। संत बिनोवा भावे के अनुसार ‘श्रेष्ठ जीवन का उद्देश्य न तो लाभ, सत्कार एवं प्रशंसा की प्राप्ति में है, न समाधि लाभ में। चित्त की अचल विमुक्ति ही श्रेष्ठ जीवन का असली उद्देश्य है और इसके लिये विचारों की श्रद्धा कभी भी ढीली नहीं होनी चाहिये। वह हमेशा मजबूत होनी चाहिये। वे आगे कहते हैं अगर मैं श्रद्धा की व्याख्या करूॅ तो मैं कहूंगा कि सद्विचार पर बुद्धि रखने का नाम श्रद्धा है। यही श्रद्धा मनुष्य को बल देती है। सब तरह से प्रेरणा देती है और उसके जीवन को सार्थक बनाती है।
भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हंै- ‘श्रद्धावान् लभते ज्ञानम्।Ó
अर्थात् जिसमें श्रद्धा है उसी को ज्ञान की प्राप्ति होती है।
वेद में भी कहा गया है कि –
‘श्रद्धया सत्यमाप्यते।Ó
अर्थात् श्रद्धा से ही सत्य की उपलब्धि सम्भव है। सत्य रूपी रथ के दो पहिये होते है-1. श्रद्धापूत तर्क और तर्कपूत श्रद्धा। श्रद्धा और सत्य की जोड़ी तो अनूठी है।
अत: जहॉं श्रद्धा नहीं वहीं अज्ञान है, अधंकार है। वहॉं प्रगति नहीं अधोगति है। वहॉं मोक्ष नहीं बधंन हैं। वहॉं आस्तिकता नहीं नास्तिकता है। वहॉं प्रेम नहीं घृणा है। अत: श्रद्धाविहीन मानव मानव नहीं निरा पशु है। जिसके हृदय में श्रद्धा है उसके लिये एक साधारण पत्थर साक्षात् भगवान का स्वरूप ग्रहण कर लेता है और उससे वह सतत् प्रेरणा प्राप्त करता है, आत्मबल प्राप्त करता है और परमानन्द प्राप्त करता रहता है किन्तु श्रद्धाविहीन व्यक्ति के लिये भगवान की सुन्दर से सुन्दर मूर्ति एक जड़-प्रणविहीन, चेतना शून्य पत्थर मात्र ही होती है।
वेद में कहा गया है – ‘श्रद्धया विन्दतेवसु।Ó अर्थात श्रद्धा से प्राप्त करने योग्य सब कुछ पाया जा सकता है। श्रद्धा में महान शक्ति है।
एकलव्य भीलराज का बालक अपनी जिज्ञासा के अनुसार धनुर्विद्या सीखने के लिये द्रोणाचार्य के पास आता है और द्रोणाचार्य उसे अपना शिष्य बनाने में अपनी असमर्थता प्रकट करते हैं किन्तु एकलव्य निराश नहीं होता। वह तत्काल वन में लौट आता है, गुरू द्रोणाचार्य की माटी से मूर्ति बनाता है और पूर्ण श्रद्धा से उसका पूजन करता है और उसी के सामने धनुर्विद्या का अभ्यास करने लग जाता है। अपनी अगाध श्रद्धा के बल पर वह धनुर्विद्या में इतनी प्रवीणता प्राप्त कर लेता है कि द्रोणाचार्य का श्रेष्ठतम शिष्य अर्जुन भी उसके मुकाबले में कहीं नहीं ठहरता। श्रद्धा की महान शक्ति का चमत्कार इससे बढ़कर और क्या हो सकता है। गोस्वामी तुलसीदास रामचरित मानस के प्रारम्भ में ही लिखते हैं –
भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धा विश्वास रूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धा: स्वान्त:स्थमीश्वरम।।
श्रद्धा ही भवानी है और विश्वास ही शंकर है। अत: जहां श्रद्धा और विश्वास दोनों है। वहीं विजय है, सफलता है। धन्ना भक्त जब बालक ही थे, एक पण्डित जी आये और उन्हें सालिग्राम की मूर्ति दे गये। उस मूर्ति में अगाध श्रद्धा थी भक्त धन्ना की और आखिर अविचल भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान् ने उन्हें साक्षात दर्शन दिये और धन्ना भक्त जीवन मुक्त हो गये श्रद्धा की शक्ति से।
ऋग्वेद का एक सूक्त तो श्रद्धा सूक्त के नाम से प्रसिद्ध है। इसमें श्रद्धा की महिमा का इस प्रकार गान किया गया है:-
श्रद्धायाग्नि समिध्यते
श्रद्धया हूयते हवि।
श्रद्धा भगस्य मूद्र्धनि
व्चसा वेदयामसि।
अर्थात् श्रद्धा के द्वारा ही मन की, ज्ञान की अग्नि प्रज्वलित होती है और श्रद्धा के द्वारा ही यज्ञ सामग्री की श्रेय सिद्धि की आहुति दी जाती है। श्रद्धा सम्पति के मस्तक पर रहने वाली है अत: श्रद्धा निश्चय ही सुख, आनंद एवं शक्ति प्राप्त करने की एक मात्र कुंजी है किन्तु अंध श्रद्धा नहीं। अंध श्रद्धा और अंधविश्वास से सदैव बचना चाहिये। हमें तो बस परलोक, परमेश्वर और शास्त्रों में श्रद्धा बढ़ानी चाहिये। श्रद्धालु व्यक्ति निश्चय ही सौ वर्ष की आयु पाता है। कहा गया है- ‘श्रद्धालु: अनुसूयष्च शतं वर्षाणि जीवति।Ó
श्रद्धा की महत्ता पर बल देते हुए भगवान कहते है-
अश्रद्धया हुत्तं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह।।
हे पार्थ बिना श्रद्धा के किया हुआ हवन, दिया हुआ दान, तपा हुआ तप और जो कुछ भी किया हुआ कर्म है वह सब असत् है, ऐसा कहा जाता है। वह न तो इस लोक में और न परलोक में ही लाभदायक है। अत: किसी भी काम में समर्पण के साथ श्रद्धा नितान्त आवश्यक है।
स्वामी रामसुखदास जी श्रद्धा के विषय में लिखते हैं-‘श्रद्धा ही साधन की जननी है। श्रद्धा है तो सब कुछ है। श्रद्धा नहीं तो कुछ भी नहीं। यह श्रद्धा प्राप्त कैसे हो सकती है? सच्चे भजन से प्राप्त होती है सच्ची श्रद्धा और श्रद्धा से ही होता है सच्चा भजन। सत्संग से श्रद्धा बढ़ती है और भजन से वह निर्मल बनती है। निर्मल सात्विक ओर अनन्य श्रद्धा से जो भजन होता है वह भगवान को तुरंत प्राप्त कराने वाला होता है।Ó
अत: श्रद्धा को विकसित करते रहना चाहिये। श्रद्धा रहनी चाहिये अपने आप में, सत्कर्मो में, सदग्रन्थों में, साधु संतों में। श्रद्धा रहनी चाहिये अपनी महान संस्कृति में, अपने पूर्वजों में, श्रद्धा रहनी चाहिये सात्विक परम्पराओं और परमपिता परमेश्वर में।