बच्चे कर्मयोगी नहीं, सुविधा भोगी बन रहे हैं

रामस्वरूप रावतसरे, शाहपुरा (जयपुर)
मो. 9828532633

एक साधन सम्पन्न व्यक्ति अपने बच्चे को लेकर महाविद्यालय के निदेशक के पास गया। उसने कहा कि हमारा बच्चा इस बात के लिये जिद कर रहा है कि यहां (भारत में) पढ़ाई अच्छी नहीं होती इसलिये उसे विदेश में पढऩे जाना है। आप इसे समझाइये कि यह विदेश में जाने की जिद छोड़ दे और यहीं पढ़े। विद्यालय के निदेशक ने माता पिता की बात सुन कर उनके बच्चे को बुलाया। देखा उसकी उम्र लगभग 15 वर्ष की रही होगी। उन्होंने उसे अपने पास बैठाया। पूछा वह यहां क्यों नहीं पढऩा चाहता।
लड़के ने तपाक से उत्तर दिया कि यहां पढ़ाई अच्छी नहीं होती। यहां के विद्यालयों में किसी प्रकार की सुविधा ही नहीं है। इस कारण से वह विदेश जाना चाहता है। उसकी यह बात सुन कर महाविद्यालय के निदेशक को भी आश्चर्य हुआ। इस बालक को इस उम्र में ही इतना ज्ञान कैसे हो गया कि यहां हमारे देश में पढ़ाई अच्छी नहीं होती जबकि उनके अनुसार हमारे यहां जो शिक्षा का स्तर है वह काफी हद तक अच्छा है। हां ,यह माना जा सकता है कि यदि उच्च शिक्षा प्राप्त करनी हो तो विदेश में जाया जाय। उन्होंने उस बालक के ज्ञान को टटोला। उसे शिक्षा या शिक्षा के स्तर का कोई ज्ञान नही था। ज्ञान था तो इस बात का कि यहां के विद्यालयों में सुविधायें नहीं है। खुलापन नहीं है। जबकि विदेशों में सब कुछ है। जब उससे यह पूछा गया कि उसे कैसे मालूम कि जहां सुविधायें होती है वहां का शिक्षा का स्तर भी अच्छा होता है। फिर विद्यार्थी के लिये जो सुविधाएं विद्यालयों में होनी चाहिये वे सब यहां है। उसने कोई जबाब नहीं दिया।
निदेशक ने उससे और भी कई प्रकार की जानकारी ली और वे इस नतीजे पर पहुंचे कि यह बालक इतनी सी उम्र में सभी प्रकार के साधनों को देख चुका है। उसे भारत में उपलब्ध सुविधाओं के साधन फीके लगने लगे हंै क्योंकि पिता के पास पैसों की कोई कमी नहीं थी। माता पिता ने भी बच्चे को अपनी धन सम्पति के बल पर ही खुश रखा क्योंकि वह इकलोता ही था। जो दुलार या ममत्व का स्पर्श उसे माता पिता से मिलना चाहिये था वह उसे नौकर या नौकरानियों से मिला। उन्हें मालिक मालकिन से जिस प्रकार की पगार तथा सम्मान मिलता था उसी के अनुरूप वे दुलार का स्पर्श उस तक पहुंचाते थे। उनका बच्चे से भावात्मक लगाव नहीं था। बस स्वार्थवश वे मजबूरी में उससे स्नेह तथा दुलार रखते थे। इसमें सबसे ज्यादा रोल होता है बच्चे को खुश रखना। अब वह खिला कर या खेलने के साधन देकर किया जा सकता है।
जब बच्चे के दिमाग पर साधनों का असर हो तो वहां संवेदनाएं कुछ भी काम नहीं करती। जिस समय माता पिता को बच्चे को सम्भालना चाहिये था उस समय उनके पास समय नहीं था। अब चुंकि बच्चा साधनों और सुविधाओं के आधार पर आगे बढ़ा तो वहां माता पिता का क्या। वे हो ना हों, उनका प्यार, उनकी संवेदनाएं किस प्रकार की होती है उनका असर कितना होता है। बच्चे को इससे क्या मतलब। बच्चे को इस बात का इल्म है कि उसके माता पिता के पास पैसा है और वे उसकी हर बात को पूरा कर सकते हैं।
हम अपने बच्चों को साधनों के आधार पर आगे बढ़ाना चाहते हैं। संस्कारों के आधार पर नहीं। बच्चे को जिन साधनों का ज्ञान 15 से 20 वर्ष की उम्र में होना चाहिये। वह ज्ञान हम उसे 5 वर्ष की उम्र में ही दे देते हंै। जबकि इस उम्र में बच्चे को माता पिता का प्यार तथा संस्कारों का आधार मिलना चाहिये। बच्चे को जितना जमीन से जोड़ कर रखेंगे, बच्चा उतना ही आपकी कद्र करेगा। बच्चे को साधनों से नहीं श्रेष्ठता से आगे बढऩे का सलीका दें। तभी हम इस बात को कह सकते हैं कि –
पूत कपूत तो क्यों धन संचय,
पूत सपूत तो क्यों धन संचय।
हमारी औलाद यदि निकम्मी है तो कितना भी धन इकट्ठा कर लो वह उसे बढ़ायेगा नहीं, बरबाद करके रहेगा और यदि औलाद संस्कारवान, श्रेष्ठ है तो वही सबसे बड़ा धन है। वह उन बातों को पूरा करेगा जो कि उसका अपने माता पिता तथा परिवार की ओर फर्ज बनता है। वह समाज को देगा, समाज से लेगा नहीं। इस बात को हमें समझना चाहिये कि हम अपने बच्चों को साधनों के मोह से दूर ही रखें। उन्हें वास्तविकता में सांस लेने दें। कल्पना की उड़ान हो लेकिन बच्चे की क्षमता के अनुसार। अधिक सुख सुविधा भी परेशानी ही पैदा करता है। सुख का आधार बच्चे की कर्मठता हो, उसकी श्रेष्ठता हो।

अभिषेक लट्टा - प्रभारी संपादक मो 9351821776

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