परिपक्वता: सब कुछ स्वयं पर केन्द्रित हो

 परिपक्वता: सब कुछ स्वयं पर केन्द्रित हो

रामस्वरूप रावतसरे
मो. 9828532633

आदि शंकराचार्य जी से प्रश्न किया गया कि परिपक्वता का क्या अर्थ है ?
आदि शंकराचार्य जी ने उत्तर दिया कि परिपक्वता वह है – ‘जब आप दूसरों को बदलने का प्रयास करना बंद कर दे, इसके बजाय स्वयं को बदलने पर ध्यान केन्द्रित करेंÓ।
आज हम दूसरों को ज्ञान बांटने, उन्हें सुधारने, समझाने में लगे रहते हैं। हम खुद अधकचरे हैं फिर भी ज्ञानी होने का आडम्बर लिये निकलते हैं। आखिर हम क्यों दूसरों को बदलने के लिये इतने तत्पर रहते हंै। वह भी हमारी तरह इन्सान ही होगा। उसने भी किसी माता पिता के यहां जन्म लिया होगा। वह भी व्यवहार, ज्ञान, शिक्षा, सदाचार के बारे में कुछ तो समझ रखता होगा। अपने अच्छे बुरे के बारे में जानता होगा। उसने भी समझदार होने का सर्टिफिकेट किसी ना किसी शिक्षण संस्थान से ले ही रखा होगा। इन्सानी जीवन को जीने की कुछ समझ तो उसमें होगी ही, तभी वह इस तथाकथित ज्ञानी समाज में टिक रहा होगा। निरीह जड़ को ज्ञान देने का साहस हम कर ही नहीं सकते।
गीता में यह कहा गया है कि, मनुष्य अपने कर्मों के अनुसार जन्म लेता है उसकी प्रारब्ध की कर्मगति ही उसके जन्म स्थान, लालन पालन, शिक्षा दीक्षा, सुख साधन, मान मर्यादा, पद प्रतिष्ठा को निर्धारित करती है। इस जन्म में जैसे कर्म करता है उसके सुख दुख, अच्छे बुरे की पृष्ठभूमि बनती जाती है। मनुष्य की सोच एवं संगत उसके भविष्य को निर्धारित करती है फिर हम किस अधिकार से उसे बदलने का निरर्थक प्रयास करते हंै। सबसे बड़ा प्रश्न खड़ा होता है कि हम दूसरों को तो किसी ना किसी बात पर ज्ञान देते हंै उन्हें बदलने का भरसक प्रयास करते हंै लेकिन कभी अपने बारे में नहीं सोचते कि मैं कितने पानी में हॅू और क्यों मैं उस समय का अपने लिये उपयोग नहीं कर रहा हॅू जो दूसरों को बदलने के निरर्थक प्रयास में बर्बाद हो रहा है?
बहुत से तथाकथित साधु संत एवं विचारक हुए हैं जिन्होंने लोगों को बदलने की कोशिश की, हजारों लाखों लोग अनुयायी रूप में पीछे भी लगा लिये लेकिन स्वयं को समझने का, बदलने का प्रयास कभी नहीं कर पाये। जब तक प्रसिद्धि का पाया उपर था सब कुछ उनके पावों के नीचे था लेकिन ज्योंहि प्रसिद्धि के पाये ने पलटा खाया खुद उनके पांवों के बराबर चले गये जिन्हें अपने पावों तक रखते थे। समाज में विचारवान एवं श्रेष्ठ व्यक्तियों ने जन्म लिया है और आगे भी लेते रहेगें लेकिन उन्होंने कभी भी किसी को बदलने के लिये अपना समय बरबाद नहीं किया, उन्होंने अपना मत दिया वो भी जनहितार्थ। वे लोगों के सुख में नहीं दुख में शामिल हुए और उनके दुख दूर करने का भरसक प्रयास भी किया। उनके मत को, सिद्धान्त को वर्षों बरस तक स्वीकार किया जाता रहा है। उन्होंने जो जैसा था उसे उसी प्रकार गले लगाया। छोटे या बड़े का भाव कभी नहीं रखा। उन्होंने व्यक्ति को नहीं देखा, उसकी समझ और श्रेष्ठता को परखा। प्रत्येक जीवात्मा को परमात्मा का अंश मानते हुए उसकी सोच को बदलने का प्रयास नहीं किया बल्कि उसे ही अपने श्रेष्ठ कर्मों से आगे बढऩे को कहा।
इन श्रेष्ठ विभूतियों ने किसी से लेने की उम्मिद नहीं रखी, अपने में इतनी सामथ्र्य को पैदा किया कि, लेने के बजाय दिया ही जाय। उन्होंने इस बात को भी समझा कि वह जो कुुछ कर रहे हैं अपने लिये कर रहे हैं, अपनी शान्ति के लिये कर रहे हैं। दूसरों का इसमें कोई लेना देना नहीं है वे बहुत ही अल्पज्ञ हैं संसार के अन्य लोग उनसे ज्यादा समझदार और ज्ञानी हैं। इस लिये उन्होंने जहां आवश्यक था वहीं अपना मत रखा। कभी यह सिद्ध करने की कोशिश नहीं की कि वे दूसरों से अधिक बुद्धिमान हैं। आमतौर पर लोग दूसरों से यह अपेक्षा करते हैं कि वे उनकी उपस्थिति को स्वीकार करें। हम परिपक्वता नहीं है इसलिये दूसरों को बदलने की सोचते हैं। यदि परिपक्वता होते तो शान्त होते, सरल होते, दूसरों को बदलने के चक्कर में अपने अन्दर की सरलता को, सहजता को नहीं खानेे देते, इनके स्थान पर अहंकार, वैचारिक आडम्बर बिराजमान हो गये हैं, यह परिपक्वता होने का परिचायक नहीं है।
आदि शंकराचार्य जी के अनुसार आप परिपक्वता तब होते हैं जब जरूरतों और चाहतों के बीच का अंतर करने में सक्षम हो जाएं और अपनी चाहतों को छोडऩे को तैयार हों लेकिन हम अपने चारों और ऐसा चाहतों का जाल सा बुन लेते हंै कि जरूरतेंं पीछे छूट जाती हैं। जबकि जरूरत को प्राथमिकता होनी चाहिये। यह तभी सम्भव लगता है जब हम अपनी खुशी को सांसारिक वस्तुओं से जोडऩा बंद कर दें। साधुता और श्रेष्ठता से पहले अपने बारे में समझ का विचार अधिक होना चाहिये।

अभिषेक लट्टा - प्रभारी संपादक मो 9351821776

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