डाक विभाग कॉलोनियों में जाकर खोल रहा है सुकन्या समृद्धि खाते
नारी तू … नारायणी तू!
कमलेश लट्टा
प्रधान सम्पादक, मो. 89551 20679
पूर्व वैदिक युग की आध्यात्मिकता को जब पढ़ रही थी तो दो स्त्रियों ने मुझे आकर्षित किया। पहली स्त्री थी, त्वष्टा की पुत्री सरण्यू , जो विश्वान की पत्नि एवं यम और यमी की माता थी।
दूसरी स्त्री थी अदिति, जो आदित्यों की माता थी। अदिति अनन्त आकाश और पृथ्वी के रूप में कल्पित दिव्य प्रकृति है। वह बन्धन हीनता या पाप मुक्ति की भी देवता है। मुक्ति रूपा और मातृ रूपा।
संसार के प्रारम्भ से देखा जाए और गम्भीर विश्लेषण किया जाए तो पहचान में आता है कि, युगों से या जब से संसार में मनुष्य के अस्तित्व की पहचान महसूस की गई, स्त्री एक स्वतन्त्र, शून्य एवं गरिमामय पूजनीय नारी की अपनी पहचान में सामने आती है। समय के बदलते परिवेश में समाज में वो परिवार मुखिया, समाज मुखिया भी रही है। पुरूष की सही सहयोगिनी भी देखी गई है।
उसी के उदाहरण हैं। वे स्वतंत्र थी, अपने निर्णय खुद कर पाने में सक्षम लेकिन समय चक्र बदला। आदि समाज की धारणाओं में परिवर्तन आया। स्त्री को कमतर कर मन्दिरों मस्जिदों व चर्चों में उन वेदियों तक नहीं जाने दिया जाने लगा जहां वैदिक पूजा की जाती थी। अदिति दिव्य थी, प्रकृति थी, पाप मुक्त थी, बंधन मुक्त थी।
बदले परिवेश में ये सारे अधिकार उससे छीन लिए गए और उसे कठोर नियन्त्रण में, कभी पिता, कभी पति तो कभी पुत्र को दे दिया गया लेकिन वो कालचक्र भी गुजर गया। वो अध्याय काफी कठिन एवं शोचनीय था। फिर समाज ने महसूस किया कि, नहीं हमें स्त्रियों को मान-सम्मान देना है, वो इसकी अधिकारी है और पूरा मीडिया, सरकारों व समाज ने एकजुट होकर उन बेडिय़ों को तोड़ दिया है। स्त्री को घूंघट से, घर की देहरी से तथा कठोर बन्धनों से आजाद कर दिया।
वहीं महिला ने अपने अन्दर की ताकत को समझा और आज वो हर क्षैत्र में अपनी उपस्थिति पूर्ण सक्षमता से दर्ज करा रही है।
वो मां पत्नि के दायरे में रहते हुए भी अपने लिए अपना एक ब्रह्माण्ड बना चुकी है। जहां उसकी कक्षाओं के बेहद चमकीले तारे दिन-रात चमकते रहते हैं।
शाबास स्त्री! तुझे सलाम कि, कोई ऐसा क्षैत्र नहीं, जहां तुम्हारे कोमल लेकिन मजबूत कदम नहीं पड़े हैं। आकाश के विस्तार से लेकर समुद्र की गहराई तुम्हारे लिए कोई मायने नहीं रखती। सीमाएं तुम्हें ज्यादा मजबूती से पहरेदारी का जज्बा देती हैं। मिसाइलों से खेलने का शौक पाल बैठी हैं आज की नारी। वो सितारों से आगे और जहां है जिन्हें ढूंढऩे में वेधशालाओं में रात-दिन एक कर रही हैं। राजपथ पर उसके आर्मी बूट की आवाज बेहद ज्यादा है।
आज की स्त्री अदिति युग को लौटा लाई हैं। वो स्वतंत्र है, वो भार्या है, वो आर्या है और वो अनन्त आकाश है। अदिति ने सूर्य को जन्म दिया। आज की नारी सूर्य से आंखें मिला रही है। वो सरण्यू बन देवताओं की पूर्व माता बन बैठी है। आदर्शमय स्त्री तुम सुन्दर हो तो शिव भी हो और सत्य भी हो। तुम आदि हो और अन्त हो। देवता भी तुम्हारी सन्तानें हैं और दानव भी तुम्हारी सन्तानें हैं।
आज तुम्हारी अपेक्षाएं अलग है, दायित्व अलग हैं और कार्य अलग हैं पर एक दायित्व आज भी उतना ही गुरूत्तर है जितना पूर्व युगों कालों में था। वह दायित्व है अपने परिवार की सुगन्ध को बनाए रखना अपनी ऋचाएं खुद लिखना और उनके अर्थ भी खुद ही ढूंढऩा। तुम्हारे घर आंगन में दो तरह के पुष्प खिलते हैं, पुत्र एवं पुत्री और वो पूर्ण संसार की जिम्मेदारी से ज्यादा जिम्मेदार दायित्व गुरूत्तर भार तुम्हारे कंधों पर है। तुम्हें सलीके से, साहस से, प्रेम और गुणों से उन्हें संवारना है। यहां क्योंकि मैं, आपसे मुखातिब हूं, एक बात आपसे जरूर पूछना चाहूंगी कि, जो अपराध बेटियों से संबंधित है क्या उसमें सिर्फ लड़का ही दोषी है या कहीं लड़की भी? अगर चाहो तो इसका जवाब जरूर दीजिएगा।
आदि भारत के खण्डहरों को खोदकर देखें,
हर खण्डहर की नींव में नारी उत्सर्ग है।
वर्तमान भारत की गगन चूमती शोहरत में,
वहीं शक्ति निसन्देह वर्तमान है।
भविष्य की अट्टालिकाओं की रोशन मीनारों में,
निश्चित ही नारी के ख्वाओं के मीनारों में सूरज चमकते पाओगे।
आओ हम उनके संगमरमरी मील के दस्तावेजी पत्थरों पर से,
जमी धूल की परत को हटा कर फूलों के सायों से सजा दें।
आप सबको महिला दिवस और ज्यादा आत्मनिर्भर बनाए।
शुभम!