डाक विभाग कॉलोनियों में जाकर खोल रहा है सुकन्या समृद्धि खाते
घर में कैद जिंदगी की कराह….
- नीलम कटलाना
कवयित्री, प्रतापगढ़, राजस्थान
मोबाईल- 94149 28466
उफ्फ….घर मे कैद होकर रह गयी जिन्दगी….कोई बेसबब तो कोई बेहिसाब…कोई बेताब तो कोई चुप….कोई हैरान तो कोई परेशान….कुछ दोस्त जिन्दगी में हबीब बन गए तो कुछ आहिस्ता, आहिस्ता बिछड़ गए…कुछ दिल से निकल गए तो कुछ दिल से न गए…
एक निराशा, बोरियत, कुछ खोने का गम, तो एक अनकहा दर्द…..क्या करें…क्या न करें…अनुभूतियों के अक्षांश नापे नहीं जा सकते न ….
चांदनी रात में भीगी पलकों की कश्तियाँ अश्कों के समंदर में बेवजह इधर से उधर डोलती रहती है, बिना लक्ष्य के…..
सूखी ऊसर धरा सी चोटग्रस्त संवेदनाएं विचार शून्यता की स्थिति में लाकर खड़ा कर देती है….लिखती हूं तो शब्द भटक जाते हैं…हड़ताल पर उतर आते हैं…. कलम अनमनी हो जाती है….डायरी के पन्ने फडफ़ड़ाने लगते हैं…
मृतप्राय: मन में सृजन की संभावनाए बड़ी मुश्किल लग रही …. फिर भी… हिम्मत जुटाकर, तमाम विसंगतियों से जूझने के बाद आज वापस मुखातिब हूँ आप सबसे…
धीरे धीरे अहसासों के नूपुरों पर जज्बातों की रुनझुन शुरू हो ही जाएगी… देखें कब किस दिशा से कोई अलमस्त हवा का झोंका आएगा आह्लादित करने वाले किसी मेघ पाहुन को लेकर…. कब दस्तक होगी भावों के बन्द कपाट पर… हो सकता है तब कोई सोता फूट पड़ेगा अचानक मनमरु को संजीवनी देने…. तब मेरी कलम थिरक उठेगी…. और मैं आऊंगी फिर लौटकर……
जाती हुई चांदनी के पीछे आता हुआ प्रभात का धूमिल आभास ऐसा लगता है मानो उसी की छाया हो…. किसी अलक्ष्य महाकवि के प्रथम जागरण छंद के समान पक्षियों का कलरव नींद की निस्तब्धता पर फैल रहा है…. रात की गहरी निस्पंद नींद से जागे हुए वृक्षों की दीर्घ नि:श्वास के समान समीर बह रही है….. प्रभाती की आवाज जो आ नहीं रही… लेकिन आ रही है….क्योंकि आदतन जो हूँ मैं, रोज इसे सुनने की…. लोकडाऊन के चलते प्रभात फेरी बन्द हो गई लेकिन दिलो दिमाग मे सतत गुंजायमान है..
जागिये कृपा निधान
पंछी बन बोले….
अचानक डोर बेल बजने की आवाज आई, पर्दा हटाकर देखा तो दूधवाले भैय्या थे, सेनिटाइजर हाथों में लगा दूध लिया और तेज आंच पर रख गर्म कर दिया….
नित्य कर्म से निवृत्त हो अखबार देखा… कोरोना, कोरोना…. बस एक ही शब्द दृष्टिगोचर हो रहा था, ऊबकर एक तरफ रख प्राणायाम शुरू कर दिया…. प्राणायाम करते करते विचारों की उड़ान शुरू हो गई, शुरू हो गई आत्मा और मन में कस्साकस्सी… और सोचने लगी कि अचानक से जीवन कितना बदल गया है, क्या ये बदलाव हमारे लिए सही है??? इसी उधेड़बुन में मन और आत्मा में जद्दोजहद चलने लगी…. आत्मा कहने लगी कि परिवर्तन सुकूनभरा होगा और सब कुछ पहले से बेहतर होगा… प्रकृति हर परिवर्तन के लिए तैयारी करती है, बहुत पहले से…. मौसम जब बदलता है तो प्रकृति हकबकाई से नहीं दिखती और जिसे हम आपदा कहते हैं, उससे भी ऊबर जाती है… फिर हम क्यों विचलित होवें…. मन भी आज बहस को छोड़ आत्मा के सुर में सुर मिलाने लगा…. मन कहने लगा कि अनगिनत तनावों से भरी जिंदगी से बचने का बेहतरीन तरीका यही है कि परेशानियों, बातों और विवादों को यथासम्भव भुला दिया जाए… प्रकृति के साथ तालमेल बैठाकर उसे संरक्षित किया जाए….. रचनात्मक सोच और कल्पना के लिए मानसिक लचीलापन होना बहुत जरूरी है जो बातों को भूलने से बेहतर होता है….
मन और आत्मा की बहस, यकीन और बे-यकीनी की परतों से सजी दो अलग किस्म के पात्रों की बहस है, जो मेरे लिए एक संस्थान की तरह है….मेरा स्कूल है, मेरा कॉलेज है…..मेरी अंतरात्मा की तरह है जो मेरी जिंदगी और मेरी हर कारकार्दगी में मेरी रहनुमाई करती है… इन दोनो पात्रों से आपको रुबरु करवाना मेरे लिए जरूरी है….
प्राणायाम और व्यायाम को खत्म कर गैस पर पानी चढ़ाया उबलने पर ग्रीन टी डालकर छान लिया, नींबू शहद के योग से ताजगी भरा प्याला तैयार हो गया और सिप करते करते कानों में चीं-चीं, कू-कू, चिक-चिक, कुहू-कुहू…..का एक अद्भुत संगीत गूंजने लगा जो तनमन में एक ताजगी भर गया…. अब मन और आत्मा एक होकर प्रकृति के साथ साथ आप सबसे संवादरत है…..
इस कोरोना काल मे आपने भी कुछ सुना??? नहीं….लेकिन मैंने तो साफ-साफ सुना…. समंदर कह रहा कि मोतियों को किनारे पर नहीं, गहराई में तलाशो….नदी ने कहा, प्रेम चाहते हो, तो मेरी तरह निर्मल हो जाओ… पहाड़ों ने कहा, शिखर जीतने का सपना मैदान में खड़े रहकर पूरा नहीं हो सकता, आगे बढ़ो और छलांग लगाओ… पंछियों ने कहा, हमारी उड़ान को कैद मत करो क्योंकि जीवन के गीत आजाद परों की फडफ़ड़ाहट में छिपे होते हैं…
चौपायों ने कहा तुम्हारे-हमारे बीच का अंतर बस इंसानियत का है, उसे कायम रखो…..दरख्तों ने कहा कुल्हाडिय़ां सर पर छांव नहीं कर सकती, एक बीज बोओ, एक पेड़ उगाओ…. और कुदरत ने कहा, अपने चेहरे से उदासी का रंग पोंछ दो, क्योंकि जिन्दगी के पास और भी बहुत से रंग हैं…. धड़कनों ने कहा कि प्रकृति के साथ गुनगुनाओ, मैं ताल में चलूंगी… वरना चूक जाऊंगी….. कहा तो मिट्टी, धूप, हवा, बारिश और रास्तों ने भी बहुत कुछ है लेकिन उनका कहा कहने से पहले मैं बस इतना कहना चाहती हूँ कि सुनो………!!
”अब तो तालाब का पानी बदल दो
ये कमल के फूल मुरझाने लगे हैं…..।ÓÓ