उठो और श्रेष्ठता के लिए युद्ध करो

 उठो और श्रेष्ठता के लिए युद्ध करो

रामस्वरूप रावतसरे (शाहपुरा, जयपुर)
मो. 98285 32633

महाभारत का युद्ध शुरू होने वाला था, दोनों तरफ सेनायें खड़ी थी। श्री कृष्ण भगवान ने अर्जुन के रथ को रणभूमि के मध्य में खड़ा किया और अर्जुन से युद्ध के लिए पांचजन्य का उद्घोष करने के लिए कहा। अर्जुन ने दूर तक नजर पसार कर देखा, दोनों तरफ उसके परिजन एवं प्रजाजन ही खड़े थे। उसके पांचजन्य के उद्घोष के साथ ही रणभूमि रक्त से नहाने लगती। चारों ओर अपनों को देखकर अर्जुन का आत्मविश्वास डगमगाने लगा। वह सोचने लगा, अपनों की बलि देकर राज्य प्राप्त करना कौन सी बहादुरी का कार्य है।
वह असमंजस की स्थिति लिये गांडीव छोड़कर बैठ गया। भगवान कृष्ण ने कहा, अर्जुन किस सोच में बैठ गये हो? अर्जुन ने कहा, आर्यश्रेष्ठ मेरे सामने मेरे अपने ही खड़े है, मैं उन पर कैसे जहर बुझे बाणों को चला सकता हूँ? यह मुझसे संभंव नहीं है। भगवान कृष्ण ने कहा, अर्जुन जिन्हें तुम अपने समझ रहे हो, वे तुम्हारे नहीं है। यदि तुम्हारे होते तो इस प्रकार का व्यवहार नहीं करते और तुम यहां खड़े नहीं होते। अर्जुन यह संसार एक माया है। यहां सब अपने कर्मों के अनुसार ही जन्म लेते है और कर्मों के अनुसार ही सुख-दुख का अनुभव करते हैं। ये जो सब सामने खड़े हैं, अधर्म की नीति को धारण कर अपने स्वयं के लिए लड़ रहे हंै। तुम धर्म की नीति को धारण कर मानवता के लिए लड़ रहे हो, तुम्हारा लडऩा श्रेष्ठता के लिए है, इनका लडऩा निकृष्टता के लिए है।
अर्जुन जब लड़ाई श्रेष्ठता के लिए होती है तो उसमें सबसे पहले अपने प्रिय ही आड़े आते हैं। पहला युद्ध उन्हीं से होता है, जब व्यक्ति अपनों से लड़कर सकुशल निकल जाता है तो उसे धर्म की नीति पर चलने के लिए कोई नहीं रोक सकता। अर्जुन यह जीवन यों हताश होकर बैठ जाने के लिए नहीं है। उठो और कर्म करो फल की चिन्ता मत करो। तुम श्रेष्ठता के लिए कर्म कर रहे हो। अर्जुन ने भगवान के उपदेशानुसार सकारात्मक भाव के साथ गांडीव उठाया और आगे बढ़ा तो बढ़ता ही गया।
उस समय महाभारत का युद्ध बाहर मैदान में था। आज महाभारत हर मानव के अन्दर चल रहा है। हम हर समय युद्ध करते रहते हैं, वैचारिक युद्ध। इस युद्ध का परिणाम भी आता है। हम हर बार थक हार कर बैठ जाते हंै। हमें अर्जुन की तरह मार्ग दिखाने वाले भगवान भी हैं, पर हम उनकी आवाज सुनते ही नहीं। हम सोच बैठते हैं कि यह मार्ग बहुत कठिन है। निकृष्टता का मार्ग सहज सुगम लगता है। हम अविश्वास के भावों को जल्दी ग्रहण करते है, विश्वास के भावों को नहीं। कारण कि हमारे चारों ओर का वातावरण ही अविश्वास से भरा है। जहां नीति पूर्ण कार्य नहीं अनीति पूर्ण कार्य ज्यादा हो रहे हंै। हम भी उन कार्यों को करने में संलग्न हैं। हालांकि हमारे अन्दर बैठा भगवान हमें हर समय सचेत करता है कि नीति पूर्ण कार्य व धर्म आधारित कतवर््य करें। यही श्रेष्ठता की ओर ले जाते हैं। धर्म की जड़ हमेशा हरी होती है, यह जानकर भी हम इस ओर कदम नहीं उठाते। यदि किसी के कहने सुनने से उठकर चल भी पड़ते हंै, तो ज्यादा नहीं चल पाते, थककर बैठ जाते हैं और पुन: उसी वातावरण में लौटने लगते हैं।
परमपूज्य गुरूदेव से दीक्षा तो ली पर उसके अनुरूप कार्य नहीं कर पा रहे हैं। कारण यही है कि हम श्रेष्ठता के लिए उठते हैं और कुछ करने से पहले ही बैठ जाते हैं। जबकि सर्वशक्तिमान हमारा हाथ पकड़कर चलने के लिए तैयार है। वे अर्जुन को दिशा देते हंै तो हमें भी उठकर चलने को कहते हैं कि एक बार पूर्ण आत्मविश्वास और दृढ़ संकल्प शक्ति से उठो और चलो। फिर देखो, चारों ओर का वातावरण हमारे मनोनुकुल होगा। भगवान कहते हैं जो परिस्थितियों से डर गया, वह मंजिल नहीं पा सकता। सोना आग में जलकर ही कुन्दन बनता है, अपनी चमक ज्यादा बिखेरता है। उसी प्रकार जो मनुष्य प्रतिकूल वातावरण में भी अपने श्रेष्ठ निर्णयानुसार चलता रहता है, वह श्रेष्ठ बनता है।
हमें समाज में सब कुछ करते हुए ही श्रेष्ठता को धारण करना है और युद्ध जीतना है। हमारे चारों ओर अनीति के योद्धा खड़े हैं वे आगे बढऩे से रोकते हैं। ये अनीति के योद्धा भावात्मक हैं। जब हम बुरे व तुच्छ भावों को नजदीक ही नहीं आने देंगे तो मन दिमाग में सजगता का पहरा होगा। सजगता कहने सुनने के प्रति, सजगता काम के प्रति, सजगता अपने पराये के प्रति, सजगता छोटे बड़े के प्रति रहने से धर्म नीति पूर्ण कर्म के प्रति निष्ठा बढ़ती है। कर्मठता की निष्ठा भगवान कृष्ण का उपदेश है जो महाभारत के समय अर्जुन को दिया गया था कि, श्रेष्ठता के लिए लड़ो चाहे वह अन्दर हो या बाहर हो। यही श्रेष्ठता सत्यता के नजदीक ले जाती है। सत्य ही भगवान है शेश सब माया है। हमें साक्षात् गुरू भगवान के उपदेशों का कर्मठता के साथ पालन करना चाहिये, निश्चय ही हम अर्जुन की तरह युद्ध जीतने में सफल होंगे।

अभिषेक लट्टा - प्रभारी संपादक मो 9351821776

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